Wednesday 4 February 2015

When religion- the force of the unity becomes a cause of conflict



When religion- the force of the unity becomes a cause of conflict

धर्मं क्या है ? इसकी कोई वस्तुनिष्ठ परिभाषा नहीं दी जा सकती | धर्म एक आचरण पद्धति भी है जिसका प्रयोग फारस प्रदेश के लोग सिन्धु के इस पार के लोगों के लिए करते थे जिसे वे हिन्दवी कहते थे, तो धर्म एक बड़ा ताकतवर शस्त्र भी है जिसे कई बुद्धि जीवियों ने ऐसे उपकरण के रूप में परिभाषित किया है जो नैतिक लोगों के लिए एक आध्यात्मिक कवच का कार्य करे | धर्म एक ऐसी अज्ञात शक्ति है जिसकी उपासना मूर्ति के माध्यम से भी की जाती है तो उसे रहस्यवाद के परदे में रखते हुए सिर्फ एक विचार की भी इबादत की जाती है तो कभी कभी उस अज्ञात शक्ति के प्रतिबिम्ब को प्रकृति पर आरोपित करते हुए उसकी उपासना भी की जाती है | इस प्रकार अलग अलग पद्धतियों और मार्गों के अनुसरण के कारण हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, जैन, बौद्ध, सिख, पारसी, यहूदी जैसे धर्मों का आविर्भाव हुआ |
                  इतने धर्मों के भीतर भी कई धाराएं, पंथ, सम्प्रदाय आदि प्रचलित हैं | उदाहरण के तौर पर हिन्दू धर्म स्वयं एक विशाल महासागर है शैव, वैष्णव से लेकर निर्गुण ईश्वर के उपासक कबीरपंथी से लेकर चार्वाक जैसे विशुद्ध भौतिकवादी दर्शन भी समाहित हैं | इसी प्रकार ईसाई, इस्लाम, सिख सभी धर्म में किसी न किसी रूप में विविधताएं हैं, किन्तु ये सभी पंथ तनाव के कारक का स्रोत नहीं बने हैं अपितु ये तो इस धारणा को पुष्ट करते हैं की मार्ग अलग अलग हो सकते हैं किन्तु साध्य सभी का एक ही है | ये सभी विरुद्धों के सामंजस्य की विराट कल्पना को परिपुष्ट करते हैं | आइये अब इस प्रश्न पर विचार करते हैं की धर्म का आविर्भाव और उदेश्य किस प्रकार सभी को एक सूत्र में बाँधने के प्रयोजन से हुआ है |
                  यदि हम इतिहास में थोडा पीछे जाएँ तो यह जानना कोई बहुत दुष्कर कार्य नहीं होगा कि किस प्रकार समाज को ऊछ्रंख्लित होने से बचाने के लिए कुछ नियम बानाए गए कुछ संहिताएं बनाई गयी |आरंभिक वैदिक धर्म ने प्रकृति के विराट स्वरूप के साथ अपना संपर्क सूत्र कायम किया तो गौतम बुद्ध ने जीवन के गूढ़ रहस्य को खोलते हुए ऐसी पद्धति का मार्ग प्रशस्त किया जो शान्ति पूर्ण सह अस्तित्व की और जाता था जैन धर्म का तो अवलंबन ही “जियो और जीने दो” के अहिंसा पूर्ण सिद्धांत पर था, तो अरब के मरुप्रदेश से उठे इस्लाम ने ऐसी पद्धति सिखाई जो मनुष्य मात्र के प्रेम और सह अस्तित्व पर जोर देती थी | उधर ईसा मसीह ने तो अहिंसा और प्रेम का सन्देश देते हुए स्वयं का बलिदान कर दिया | सभी धर्म के मूल में वे ही भावनाएं हैं जो मनुष्य को भातृत्व, प्रेम और करुणा का सन्देश देती हैं, जो मनुष्य को आराजक होने से बचाती हैं और मनुष्य को सिखाती हैं की किस प्रकार शान्ति पूर्ण सह अस्तित्व को चरितार्थ किया जाए |
                  इन्ही कारणों से धर्म मनुष्य को एक सूत्र में बाँधने का कार्य करता है | बुद्ध के संदेशों को मानते हुए अशोक ने भी अपनी धार्मिक सभाओं के नियमों का हवाला देते हुए कहा था की “सभी की बात सुनी जाए, सभी के पास अपना ह्रदय है, अपने विचार हैं और उनके प्रति आदर रखा जाए” जैन धर्म भी कुछ इसी प्रकार का विचार रखता है की कुछ भी अंतिम रूप से ज्ञात सत्य नहीं है अतः सभी को आपस में सहिष्णुता से रहना चाहिए | आश्चर्यजनक रूप से अकबर एक विशाल भौगोलिक प्रदेश को एक सूत्र में बांध पाया क्यूंकि वह एक धर्म सहिष्णु सम्राट था ओस्सके इबादत खाने में सभी धर्म के अनुयायी आपस में बैठकर वाद विवाद करते थे और गूढ़ प्रश्नों पर विचार किया करते थे | उर्दू के मशहूर कवी इकबाल जो की स्वयं एक मुस्लिम थे, राम की प्रशंसा में कहा था की
          “है राम के वज़ूद पे, हिन्दुस्तां को नाज़ | अहले वतन समझते हैं, उसको इमामे हिन्द”                                                  तो इस प्रकार धर्म मानवमात्र को जोड़ने का कार्य कार्य करता है | धर्म मनुष्य को विभिन्न द्वीपों में बंटकर रहने का नहीं आपितु विराट सूत्र में बांधकर रखने का सन्देश देता है |
            लेकिन समकालीन विश्व पर यदि नज़र दौडाएं तो मन विषाद से भर उठता है की धर्म जो एक अति सुन्दर अवधारणा है, एक शक्तिशाली विचार है, जो प्रेम का सन्देश देता है उसी के नाम पर विवाद होते हैं | धर्म का हवाला देकर लोगों पर अत्याचार किये जाते हैं स्वयं के धर्म को श्रेष्ठ बताने का प्रयास किया जाता है | यह एक गहरे क्षोभ का विषय है की कतिपय लोगों द्वारा धर्म की व्याख्या इतनी तीखी और ज़हरीली की जाती है कि यह वैमनस्य का कारण बनती है | इसके पीछे कई कारण है जो की विवाद के कारण हेतु जिम्मेदार हैं | सबसे पहले तो धर्म की गलत व्याख्याएं की जाती हैं | धर्म जो एक विचार है उसको संख्या बल से जोड़ा जाता है और दूसरे धर्म के अनुयायियों पर अत्याचार करके प्रताड़ित करने का प्रयास किया जाता है | धर्म की संकीर्ण व्याख्या द्वारा बचपन से ही बालक के विवेक की खिडकियों को बंद कर दिया जाता है | धर्म को कभी भौगोलिक प्रदेश से तो कभी राष्ट्र से जोड़ा जाता है | धर्म के नाम पर आक्रामक संगठन बनाए जाते हैं | जब मनुष्य स्वयं की अस्मिता और अस्तित्व को ही धर्म से जोड़कर देखता है तो जब भी उसे अपने धर्म के विरुद्ध कोई विचार दिखाई देता है वह उसे अपने अस्तित्व पर संकट मान लेता है | बड़े विडम्बना का विषय है की जो धर्म मनुष्य को सहिष्णुता का पाठ पढाता है उसी धर्म के नाम पर मनुष्य असहिष्णुता की पराकाष्ठ पर उतर आता है | कभी कोई रंग विशेष को एक धर्म की पहचान मान लिया जाता है तो कभी अखबार के एक सम्पादकीय पर समाज उबल पड़ता है |
      यदि इन सभी समस्याओं और तनाव पर द्रष्टिपात करें तो पहली चीज़ जो समझ में आती है वह है धर्म की गलत व्याख्या | धर्म एक विचार है उसे एक मार्गदर्शक के रूप में देखा जाए न की अस्मिता का प्रश्न बनाया जाए | दुसरे हमारे समाज को परिपक्व बनाने का प्रयास होना चाहिए ताकि दूसरे के धर्म के प्रति आदर भाव विकसित हो सके जैसा की अशोक ने कहा भी है “यदि आप दूसरों के धर्म पर आक्षेप लगाते हो तो आप स्वयं अपने धर्म को लज्जित करते हो” तो हमें बच्चों की पहली पाठ शाला घर और दूसरी पाठशाला विद्यालय दोनों ही स्थानों पर साम्प्रदायिकता सौहाद्र की भावना का प्रसार करना चाहिए |  धार्मिक गुरुओं की महती जिम्मेदारी होती है की वे धर्म की व्याख्या उसके संकीर्ण रूप में न करें |
                  सभी धर्म महान होते हैं क्यूंकि वे उन महान संदेशों का प्रचार प्रसार करते हैं जिन पर मानव सदियों से चलता आया है और जिन पर मनुष्य का मनुष्यत्व अवलंबित है | धर्म की और किसी भी संकीर्ण रूप से व्याख्या स्वयं मनुष्यता पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा करेगी | जिसके परिणाम शायद क्षितिज पर हम अभी से देख पा रहे हैं | जितनी जल्दी हम सावचेत होंगे मनुष्यत्व की अस्मिता के लिए उतना ही बेहतर होगा |

2 comments:

  1. जैसा की निबंध आशा करता है तो धर्म जब विवाद का कारण बनाते हैं तो उसके क्या परिणाम होते हैं, इस पर भी कुछ चर्चा हो जाती तो ठीक रहता ..वैसे ठीक लिखा है

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  2. धर्म अर्थात् सत्य / न्याय और नीति
    अधर्म अर्थात् जो धर्म के विपरीत हो
    गीता के अनुसार धर्म की हानि अर्थात् सत्य / न्याय एवं नीति का न होना

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