Monday 23 February 2015

अधिकार(सत्ता) बढ़ने के साथ साथ उत्तरदायित्व भी बढ़ जाता है



          अधिकार(सत्ता) बढ़ने के साथ साथ उत्तरदायित्व भी बढ़ जाता है
मनोविज्ञान में मनुष्य के सन्दर्भ में तीन आदिम भावनाओं की बात की गयी है जो की क्रमशः 'लिबिडो', 'दूसरों पर नियंत्रण रखने की इच्छा' और 'जीवित रहने की इच्छा के रूप में जानी जाती है | ये तीनों मनुष्य की मूल इच्छाएं होती हैं जो मनुष्य के अवचेतन में रहती है और अवसर आने पर कई रूपों में प्रकट होती हैं | यदि इस सन्दर्भ में दूसरी आदिम इच्छा –दूसरों पर नियंत्रण रखने की इच्छा की बात की जाए तो उसे सत्ता (अधिकार) के लिए रूढ़ माना जा सकता है | हर मनुष्य सत्ता प्राप्त करना चाहता है और इस माध्यम से वह अधिकाधिक शक्ति प्राप्त करना चाहता है ताकि वह दूसरों के जीवन पर नियंत्रण रख सके | यहाँ सत्ता के संकीर्ण नजरिये से बचते हुए हमें इसके आयामों का ध्यान रखना चाहिए | सत्ता कई प्रतीकों के माध्यम से आती है वह राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक कई रूपों में आती है|
                     अब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं की सत्ता और शक्ति की असीमितता के क्या परिणाम होते हैं | क्या सदैव ही ये नकारात्मक होते हैं जैसा की कहा भी गया है “शक्ति मनुष्य को भ्रष्ट बनाती है और असीमित शक्ति असीमित रूप से भ्रष्ट” क्या सत्ता के साथ उत्तरदायित्व की भावना की अनिवार्यता संभव है और दोनों के परिणाम क्या होंगे |
                  पहले हम इसे समझने का प्रयास करते हैं की शक्ति की अनियिन्त्रिता के परिणाम क्या होंगे | हिंदी साहित्य के पुनर्जागरण के पुरोधा भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने प्रसिद्द नाटक ‘अंधेर नगरी-चौपट राजा’ में बहुत ही सशक्त तरीके से दिखाया है की किस प्रकार एक मूर्ख राजा अपनी शक्ति का प्रयोग करता है जिससे निर्दोष नागरिक मृत्युदंड के कगार पर पहुँच जाता हैकिन्तु अंततः मूर्ख राजा स्वयं ही उसका शिकार होता है और मारा जाता है | हमारा इतिहास ऐसे तानाशाहों से भरा पड़ा है जिन्होंने अपनी अपिरिमित शक्ति के प्रयोग से आम जनता के लिए कई परेशानियां खड़ी की है | तैमुर, नादिरशाह और हलाकू से लेकर पोलपोट, सद्दाम हुस्सेंन और गद्दाफी तक यह परंपरा अद्यतन कायम है |
अंतरराष्ट्रीय जगत के निर्विवाद नेता US द्वारा इराक पर एक तरफ़ा आक्रमण करना जबकि इसके लिए उसे UN का अनिवार्य अनुमोदन भी प्राप्त नहीं था कोण भूल सकता है | बाद में इसी आक्रमण के फलस्वरूप आई शक्ति शून्यता तथा वहाँ की संस्थागत शून्यता की स्थति ने वर्तमान ISIS संकट का उद्भव किया | पश्चिमी देशों के उपनिवेशवाद, हिटलर की अमानुषिकता US का वियतनाम युद्ध जैसे कई द्रष्टान्त इतिहास में भरे पड़े हैं |
यदि सत्ता को सामजिक सन्दर्भों में देखें तो किस प्रकार सदियों से पुरुष द्वारा महिला का दमन किया गया और महिलाओं को मूल अधिकारों से वंचित रखा गया | किस प्रकार पूँजीवाद ने श्रमिक वर्ग का शोषण किया और किस प्रकार सैकड़ों वर्षों तक ब्राह्मण वर्ग द्वारा दलित वर्ग का पद दलन किया गया इससे भला कोण परिचित नहीं होगा |
आर्थिक मोर्चों पर बड़ी कम्पनियां सदा ही छोटी कंपनियां को रोंदती आई हैं | ईस्ट इंडिया कंपनी की सर्वोच्चता ने ही उसे पूँजीवाद के विद्रूप चेहरे में बदल दिया था | आधुनिक युग में माइक्रोसॉफ्ट के खिलाफ 1998 में लाया गया एंटी ट्रस्ट मामला तत्कालीन US इतिहास का सबसे बड़ा मामला था ये सब मुद्दे इन बड़ी कंपनियों को ऐसे बड़े वट वृक्ष के रूप में निरूपित करते हैं जिनके तले छोटी कंपनियों रुपी कोंपलें पल्लवित नहीं हो सकती हैं | इसी कारन भारत में कम्पटीशन कमीशन ऑफ इंडिया (CCI) की अवधारणा आई |
            उपरोक्त उदहारण सत्ता की एक बहुत ही नकारात्मक छवि पेश करते हैं और अनायास ही सत्ता को हम उसके पाशविक रूप में देखने लगते हैं जैसा की परमाणु बम के प्रणेता ने हिरोशिमा नागासाकी के सन्दर्भ अपने नेतृत्व द्वारा इसके दुरुपयोग पर कुंठित होते गीता के ही शब्दों को प्रतिध्वनित करते हुए कहा था की “मैं ही शक्ति हूँ, मैं ही काल हूँ” तो क्या सत्ता का सिर्फ यही एक चेहरा है जो वीभत्स है या सत्ता का सदुपयोग संभव है जो की उत्तरदायित्व की बयार के साथ आये | आइये अब सत्ता के इस पक्ष पर बात करते हैं |
            सत्ता के सकारात्मक उपयोग से आशय है कुछ उत्तरदायित्व की भावना का समावेश किया जाना | यह स्वतः फूर्त भी हो सकता है और बाह्य आरोपित भी | इस सन्दर्भ में हमारे इतिहास के दो महान शासकों अशोक और अकबर का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा | अशोक ने सत्ता का निरंकुश प्रयोग करते हुए भयानक मारकाट मचाई किन्तु उसी सत्ता के दायित्व बोध ने अशोक को धर्म और शान्ति के सन्देश के प्रसार को प्रेरित किया और अशोक का स्थान राजा, शासक, महाराजा की अंतहीन श्रंखला में सबसे चमकीले नक्षत्र के रूप में प्रकाशमान है | सम्राट अकबर ने सत्ता और सहिष्णुता के मेल जोल से तथा संवाद की परंपरा कायम करके मुग़ल साम्राज्य को एक झटके से बाहरी आततायी के स्थान पर भारत की मिटटी से गहरे से जोड़ दिया |
                 इस सन्दर्भ में भारतीय संविधान निर्माताओं की सोच बड़ी दूरदर्शी थी | UK का संविधान मानव समाज की विकृतियों से शंकित हो सारी शक्ति संसद को सौंप देता है तो  US का संविधान कुछ अग्रगामी था और विधि निर्माताओं की शक्तियों से शंकित हो शक्ति स्रोत न्यायपालिका को सौंपता है किन्तु भारतीय संविधान निर्माताओं ने एक माध्यम मार्ग खोज निकाला है और शक्ति संतुलन कायम किया जो की एक मायने में उत्तरदायित्व की भावना का संतुलन था
                    सामजिक क्षेत्र में पुरुष वर्ग के पददलन से त्रस्त विश्व में केरल और मेघालय की मात्रवंशीय परम्पराएं भी द्रष्टिगत हैं | इन दोनों स्थानों पर क्रमशः नायर तथा खासी वंशों में मात्रवंशीय परम्पराएं हैं | कहना न होगा की किस प्रकार सर्वत्र नारी के शोषण ने इन स्थानों पर शक्ति के स्रोत नारी को एक उत्तरदायित्व का बोध कराया और इसी कारण यहाँ पर सत्ता का प्रयोग ज्यादा विवेकशील था | इसी कारण यहाँ के सामाजिक प्रतिमान भारत में अन्य स्थानों से अच्छे हैं |
        प. नेहरु में भी यह भावना थी तभी निर्विवाद रूप से भारत के सबसे बड़े नेता होने के बावजूद डॉ आंबेडकर और डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया जबकि वे उनके राजनीतिक विरोधी थे | यह उत्तरदायित्व की भावना उनकी पुत्री इंदिरा गांधी में उतने गहरे शायद नहीं थी तो उसका परिणाम लोकतंत्र पर एक धब्बे के रूप में इमरजेंसी के रूप में सामने आया |
शक्ति के साथ उत्तरदायित्व के सबसे सशक्त उदाहरण हमारी संवैधानिक संस्थाएं हैं | भारत का निर्वाचन आयोग चुनाव के समय शक्ति का अंतिम स्रोत हो जाता है किन्तु इन्ही चुनावों के माध्यम से भारतीय लोकतंत्र हर पांच वर्ष में सत्ता का परिवर्तन बड़े शांतिपूर्ण तरीके से करता है | CAG द्वारा की गयी निष्पक्ष लेखा परीक्षाएं सदा ही से सत्तारूढ़ शासक वर्ग के लिए चिंता का सबब रही हैं | कहना न होगा की किस प्रकार स्वायत्त RBI की नीतियों ने 1929 के बाद की सबसे बड़ी आर्थिक सुनामी से भारत को एक हद तक बचा लिया था तथा एकभी भारतीय बैंक दिवालिया नहीं हुआ था |
            इस प्रकार सत्ता और शक्ति के दो स्वरूप होते हैं और जितनी प्रबल सत्ता होती है उतनी ही प्रबल उत्तरदायित्व की भावना की दरकार होती है | एक और परमाणु बम विनाश का तांडव रचते हैं तो दूसरी और शान्तिपूर्ण प्रयोग विश्व की ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने में सक्रीय योगदान देते हैं | जिस प्रकार ज्यादा स्वतंत्रता की मांग के साथ एक बड़े उत्तरदायित्व की भावना स्वतः आती है जो की आग्रहपूर्वक यह दर्शाती है की स्वतन्त्र व स्वच्छंद रूप में जो निर्णय हमने लिए हैं उनके  परिणामों की जिम्मेदारी भी हमारी स्वयं की होती है | यह परिणाम की जिम्मेदारी स्वतः ही हमारी स्वतंत्रता को ऊश्च्रंख्ल होने से बचा लेती है | ठीक इसी प्रकार उतरदायित्व की भावना शक्ति के प्रयोग को ऊश्च्रंख्ल होने से बचाता है |

Sunday 15 February 2015

Are the standard tests good measure of ability or progress



Are the standard tests good measure of ability or progress

अक्सर बालकों को विद्यालय जाते हुए जब कोमल कन्धों पर भारी बस्तों को देखते हैं तो स्वाभाविक प्रश्न कोंधता है इसकी परिणित किस रूप में होगी और तत्काल प्रतिध्वनित होते हुए उत्तर भी मिल जाता है इसका गंतव्य तो अनिश्चित है किन्तु मार्ग परीक्षाओं और टेस्ट्स की अंतहीन प्रक्रियाओं से होकर गुजरता है तो क्या ये टेस्ट्स जो बालकों और युवाओं के विभिन्न पैमानों पर जांचने हेतु प्रयुक्त होते हैं तो किस हद तक अपने प्रयोजन में सफल होते हैं आइये इन्ही कुछ प्रश्नों पर विचार करते हैं
                        अमूमन परीक्षाओं और टेस्ट्स को आधुनिकता से जोड़ा जाता है की ये पश्चिम की दें हैं किन्तु नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में तो यह कहा जाता है की वहां के सुरक्षा प्रहरी आगंतुक से कुछ प्रश्न करते थे तत्पश्चात आगंतुक की योग्यता को जांच परखने के बाद उपर्युक्त पाए जाने पर ही प्रवेश देते थे तो इससे ये द्रष्टिगत होता है की एक तो ये टेस्ट कोई आधुनिक परंपरा की ही देन नहीं है और दुसरे इन टेस्ट्स का प्रयोजन होता है व्यक्ति की योग्यता को जांचना की अमुक व्यक्ति किस हद तक किसी पद विशेष या संस्थान में प्रवेश हेतु सार्थक है|
                  वर्तमान परिपेक्ष्य में हम इन दोनों विकल्पों पर विचार करते हैं की टेस्ट्स लेने की संगतता किस हद तक न्यायोचित है और इसके दुसरे पक्ष पर भी विचार करते हैं
                   यदि हम प्रथम विकल्प को देखें की वर्तमान में टेस्ट्स के प्रयोजन की सार्थकता क्या है | वर्तमान समय पुरातन समय से अलग है यहाँ योग्यता के साथ साथ आगंतुकों की भारी भीड़ को छांटने हेतु भी टेस्ट लिए जाते हैं | विद्यालय स्तर पर नर्सरी से ही बालक टेस्ट की अंतहीन प्रक्रिया से गुजरता है यह तो मानना होगा की बदौलत ही बालक में एक प्रतिस्पर्धा की भावना विकसित होती है जो की आगे चलकर उसे मानसिक रूप से कड़ी प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करता है | इन्ही टेस्ट्स की बदौलत हमें तकनीक और प्रबंधन के क्षेत्र के शिखर पुरुष मिले हैं | स्वयं बिल गेट्स भी SAT के टेस्ट में सर्वाधिक अंक प्राप्त कर हार्वर्ड में प्रवेश हेतु स्वयं को सिद्ध कर चुके थे चाहे बाद में स्वयम ही उन्होने कोलेज बीच में छोड़ दिया हो | बिल गेट्स, सन माइक्रोसिस्टम के संस्थापक विनोद खोसला, RBI के वर्तमान गवर्नर रघुराम राजन आदि के रूप में अंतहीन श्रंखला है | तो क्या ये टेस्ट की निर्विविदता को साबित नहीं करते किन्तु किसी परिणाम पर पहुँचने से पहले हमें इसके दुसरे पक्षों पर भी विचार करना होगा की यदि ये टेस्ट्स ही अंतिम पैमाना होते तो बिल गेट्स, मार्क जकरबर्ग अपना कॉलेज बीच में ही नहीं छोड़ते | माइक्रोसॉफ्ट के CEO सत्या नाडेला मनिपाल univ. जैसे साधारण कॉलेज से पढ़कर भी इतने बड़े कॉलेज को सुशोभित नहीं करते | ये टेस्ट वर्तमान में सिर्फ तनाव सृजित करने का माध्यम बन चुके हैं | बचपन जो की स्वछंदता का प्रतीक होता है और युवावस्था जो की नए विचारों के मंथन स्वरूप नए विचारों व नवोन्मेष के कार्यों में स्वयं को समर्पित करने हेतु होती है वे आजकल सिर्फ अवसादग्रस्तता की पर्याय बन चुकी है आत्म हत्याओं की दर में नाटकियता पूर्वक वृद्धि हो रही है | यह भी एक विवाद का विषय है की क्या एक दिन या 2-3 घंटे में ही हम किसी के जीवन भर या वर्ष भर की नवोंमेषता को चेक कर सकते हैं | दबाव में कई बार टूट जाने के कारण उस पर असफल होने का ठप्पा लग जाता है | IQ और उसके बाद आई EQ जैसी अवधारणाएं पारंपरिक टेस्ट की धज्जियां उड़ती हैं और सिद्ध करती हैं की क्यूँ पारंपरिक टेस्ट किसी व्यक्ति की क्षमता और सफल होने की जांच करने का उचित आधार नहीं है
                    अब हम उस स्थति की कल्पना करते हैं जब टेस्ट्स और परीक्षा जैसी प्रक्रियाओं को सामान्य जिंदगी से अलग कर दें तो अब कैसी स्थति होगी | यह तो स्वीकार करना होगा की किसी संस्थान विशेष में प्रवेश हेतु तो टेस्ट ही एकमात्र विकल्प दीखता है वरना एक अनार सौ बीमार जैसी समस्याओं से कैसे निपटा जाएगा | किन्तु हाँ इसके पैटर्न में कुछ बदलाव लाया जा सकता है तथा इन्हें और ज्यादा समावेशी बनाया जाए | संस्थाओं से इतर जाने पर जब हम विद्यालों और कॉलेज स्तर पर जाते हैं तो हम टेस्ट की वस्तुनिष्ठता और जकड़न को ढीली करने का प्रयास अवश्य कर सकते हैं | जैसे भारत सरकार का हालिया कदम की आठवीं तक किसी को फेल करने की संभवनाओं को समाप्त करता है | इससे बालक चीज़ों को रटना कम करेगा क्यूंकि परंपरागत टेस्ट रटंत विद्या को मापने के पर्याय बन चुके हैं | आइन्सटीन के बारे में एक मिथक है की वे आरंभिक शिक्षा के स्तर पर एक कमज़ोर विद्यार्थी थे किन्तु इसका दूसरा पहलू यह है की जिस तरीके की परीक्षा पद्धति थी उसमे उन्हें फेल होना ही था | एक वैज्ञानिक को आप सामाजिक, शास्त्रीय विषयों की जांच से नहीं परख सकते हो |
                     इस सन्दर्भ में प्रसाद की प्रसिद्द पंक्तियों को उधत करना समीचीन होगा “ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है, क्यूँ इच्छा पूरी हो मन की“ अर्थात जब व्यक्ति का ज्ञान कुछ और है, उसका कार्य क्षेत्र कुछ और है और उसकी इच्छा या आकांक्षा कुछ और है तो वह सदैव ही वह स्वयं को दुविधाग्रस्त ही पायेगा जो उसे अवसादग्रस्तता की ओर ले जायेगी | अतः परीक्षाओं का उदेश्य यह होना चाहिये की व्यक्ति किस क्षेत्र के अनुकूल है उसे क्या प्रयास करने चाहिए न की यह जांचने के लिए की क्या वह परीक्षा विशेष में सफल होता है या असफल |
                      इसमे संदेह नहीं की वर्तमान टेस्ट प्रणाली ने अकादमिक क्षेत्र में कई शलाका पुरुष दिए हैं किन्तु साथ ही यह भी स्वीकार करना होगा की चित्रकार मकबूल फ़िदा हुस्सेंन, क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर, कार्टूनिस्ट आर.के.लक्ष्मण हमारे दिग्गज राजनेता, साहित्यकार परंपरागत टेस्ट प्रणाली को मुंह चिढाते प्रतीत होते हैं | आइंस्टीन ने इस सन्दर्भ में सही ही कहा है की यदि मछली की काबिलियत को आप इस आधार पर जांचे की वह कितनी कुशलता से वृक्ष पर चढ़ सकती है तो वह परंपरागत प्रणाली में मूर्ख की ही श्रेणी में ही आएगी |
                         अतः आवश्यकता है की वर्तमान टेस्ट प्रणाली को ज्यादा खुली बनाई जाए जैसा की टेगोर के शान्ति निकेतन में होता था जहां परंपरागत क्लास रूम की बजाय नीले आकाश तले शिक्षा को प्राथमिकता दी जाती थी | अमर्त्य सेन और सत्यजीत रे ऐसी ही शिक्षा की उपज थे | टेस्ट को सीमित तौर पर ही स्वीकार किया जाना चाहिए किन्तु कुछ आंकड़ों की आधार पर किसी की क्षमता को परखने के प्रयास से हमें बचना होगा | इस सन्दर्भ में वर्तमान शिक्षा प्रणाली ही नहीं हमें अपनी मानसिकता भी बदलनी होगी जो की आग्रहपूर्वक सिर्फ परीक्षा के परिणाम के आंकड़ों पर ही केन्द्रित रहता है     

Wednesday 4 February 2015

When religion- the force of the unity becomes a cause of conflict



When religion- the force of the unity becomes a cause of conflict

धर्मं क्या है ? इसकी कोई वस्तुनिष्ठ परिभाषा नहीं दी जा सकती | धर्म एक आचरण पद्धति भी है जिसका प्रयोग फारस प्रदेश के लोग सिन्धु के इस पार के लोगों के लिए करते थे जिसे वे हिन्दवी कहते थे, तो धर्म एक बड़ा ताकतवर शस्त्र भी है जिसे कई बुद्धि जीवियों ने ऐसे उपकरण के रूप में परिभाषित किया है जो नैतिक लोगों के लिए एक आध्यात्मिक कवच का कार्य करे | धर्म एक ऐसी अज्ञात शक्ति है जिसकी उपासना मूर्ति के माध्यम से भी की जाती है तो उसे रहस्यवाद के परदे में रखते हुए सिर्फ एक विचार की भी इबादत की जाती है तो कभी कभी उस अज्ञात शक्ति के प्रतिबिम्ब को प्रकृति पर आरोपित करते हुए उसकी उपासना भी की जाती है | इस प्रकार अलग अलग पद्धतियों और मार्गों के अनुसरण के कारण हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, जैन, बौद्ध, सिख, पारसी, यहूदी जैसे धर्मों का आविर्भाव हुआ |
                  इतने धर्मों के भीतर भी कई धाराएं, पंथ, सम्प्रदाय आदि प्रचलित हैं | उदाहरण के तौर पर हिन्दू धर्म स्वयं एक विशाल महासागर है शैव, वैष्णव से लेकर निर्गुण ईश्वर के उपासक कबीरपंथी से लेकर चार्वाक जैसे विशुद्ध भौतिकवादी दर्शन भी समाहित हैं | इसी प्रकार ईसाई, इस्लाम, सिख सभी धर्म में किसी न किसी रूप में विविधताएं हैं, किन्तु ये सभी पंथ तनाव के कारक का स्रोत नहीं बने हैं अपितु ये तो इस धारणा को पुष्ट करते हैं की मार्ग अलग अलग हो सकते हैं किन्तु साध्य सभी का एक ही है | ये सभी विरुद्धों के सामंजस्य की विराट कल्पना को परिपुष्ट करते हैं | आइये अब इस प्रश्न पर विचार करते हैं की धर्म का आविर्भाव और उदेश्य किस प्रकार सभी को एक सूत्र में बाँधने के प्रयोजन से हुआ है |
                  यदि हम इतिहास में थोडा पीछे जाएँ तो यह जानना कोई बहुत दुष्कर कार्य नहीं होगा कि किस प्रकार समाज को ऊछ्रंख्लित होने से बचाने के लिए कुछ नियम बानाए गए कुछ संहिताएं बनाई गयी |आरंभिक वैदिक धर्म ने प्रकृति के विराट स्वरूप के साथ अपना संपर्क सूत्र कायम किया तो गौतम बुद्ध ने जीवन के गूढ़ रहस्य को खोलते हुए ऐसी पद्धति का मार्ग प्रशस्त किया जो शान्ति पूर्ण सह अस्तित्व की और जाता था जैन धर्म का तो अवलंबन ही “जियो और जीने दो” के अहिंसा पूर्ण सिद्धांत पर था, तो अरब के मरुप्रदेश से उठे इस्लाम ने ऐसी पद्धति सिखाई जो मनुष्य मात्र के प्रेम और सह अस्तित्व पर जोर देती थी | उधर ईसा मसीह ने तो अहिंसा और प्रेम का सन्देश देते हुए स्वयं का बलिदान कर दिया | सभी धर्म के मूल में वे ही भावनाएं हैं जो मनुष्य को भातृत्व, प्रेम और करुणा का सन्देश देती हैं, जो मनुष्य को आराजक होने से बचाती हैं और मनुष्य को सिखाती हैं की किस प्रकार शान्ति पूर्ण सह अस्तित्व को चरितार्थ किया जाए |
                  इन्ही कारणों से धर्म मनुष्य को एक सूत्र में बाँधने का कार्य करता है | बुद्ध के संदेशों को मानते हुए अशोक ने भी अपनी धार्मिक सभाओं के नियमों का हवाला देते हुए कहा था की “सभी की बात सुनी जाए, सभी के पास अपना ह्रदय है, अपने विचार हैं और उनके प्रति आदर रखा जाए” जैन धर्म भी कुछ इसी प्रकार का विचार रखता है की कुछ भी अंतिम रूप से ज्ञात सत्य नहीं है अतः सभी को आपस में सहिष्णुता से रहना चाहिए | आश्चर्यजनक रूप से अकबर एक विशाल भौगोलिक प्रदेश को एक सूत्र में बांध पाया क्यूंकि वह एक धर्म सहिष्णु सम्राट था ओस्सके इबादत खाने में सभी धर्म के अनुयायी आपस में बैठकर वाद विवाद करते थे और गूढ़ प्रश्नों पर विचार किया करते थे | उर्दू के मशहूर कवी इकबाल जो की स्वयं एक मुस्लिम थे, राम की प्रशंसा में कहा था की
          “है राम के वज़ूद पे, हिन्दुस्तां को नाज़ | अहले वतन समझते हैं, उसको इमामे हिन्द”                                                  तो इस प्रकार धर्म मानवमात्र को जोड़ने का कार्य कार्य करता है | धर्म मनुष्य को विभिन्न द्वीपों में बंटकर रहने का नहीं आपितु विराट सूत्र में बांधकर रखने का सन्देश देता है |
            लेकिन समकालीन विश्व पर यदि नज़र दौडाएं तो मन विषाद से भर उठता है की धर्म जो एक अति सुन्दर अवधारणा है, एक शक्तिशाली विचार है, जो प्रेम का सन्देश देता है उसी के नाम पर विवाद होते हैं | धर्म का हवाला देकर लोगों पर अत्याचार किये जाते हैं स्वयं के धर्म को श्रेष्ठ बताने का प्रयास किया जाता है | यह एक गहरे क्षोभ का विषय है की कतिपय लोगों द्वारा धर्म की व्याख्या इतनी तीखी और ज़हरीली की जाती है कि यह वैमनस्य का कारण बनती है | इसके पीछे कई कारण है जो की विवाद के कारण हेतु जिम्मेदार हैं | सबसे पहले तो धर्म की गलत व्याख्याएं की जाती हैं | धर्म जो एक विचार है उसको संख्या बल से जोड़ा जाता है और दूसरे धर्म के अनुयायियों पर अत्याचार करके प्रताड़ित करने का प्रयास किया जाता है | धर्म की संकीर्ण व्याख्या द्वारा बचपन से ही बालक के विवेक की खिडकियों को बंद कर दिया जाता है | धर्म को कभी भौगोलिक प्रदेश से तो कभी राष्ट्र से जोड़ा जाता है | धर्म के नाम पर आक्रामक संगठन बनाए जाते हैं | जब मनुष्य स्वयं की अस्मिता और अस्तित्व को ही धर्म से जोड़कर देखता है तो जब भी उसे अपने धर्म के विरुद्ध कोई विचार दिखाई देता है वह उसे अपने अस्तित्व पर संकट मान लेता है | बड़े विडम्बना का विषय है की जो धर्म मनुष्य को सहिष्णुता का पाठ पढाता है उसी धर्म के नाम पर मनुष्य असहिष्णुता की पराकाष्ठ पर उतर आता है | कभी कोई रंग विशेष को एक धर्म की पहचान मान लिया जाता है तो कभी अखबार के एक सम्पादकीय पर समाज उबल पड़ता है |
      यदि इन सभी समस्याओं और तनाव पर द्रष्टिपात करें तो पहली चीज़ जो समझ में आती है वह है धर्म की गलत व्याख्या | धर्म एक विचार है उसे एक मार्गदर्शक के रूप में देखा जाए न की अस्मिता का प्रश्न बनाया जाए | दुसरे हमारे समाज को परिपक्व बनाने का प्रयास होना चाहिए ताकि दूसरे के धर्म के प्रति आदर भाव विकसित हो सके जैसा की अशोक ने कहा भी है “यदि आप दूसरों के धर्म पर आक्षेप लगाते हो तो आप स्वयं अपने धर्म को लज्जित करते हो” तो हमें बच्चों की पहली पाठ शाला घर और दूसरी पाठशाला विद्यालय दोनों ही स्थानों पर साम्प्रदायिकता सौहाद्र की भावना का प्रसार करना चाहिए |  धार्मिक गुरुओं की महती जिम्मेदारी होती है की वे धर्म की व्याख्या उसके संकीर्ण रूप में न करें |
                  सभी धर्म महान होते हैं क्यूंकि वे उन महान संदेशों का प्रचार प्रसार करते हैं जिन पर मानव सदियों से चलता आया है और जिन पर मनुष्य का मनुष्यत्व अवलंबित है | धर्म की और किसी भी संकीर्ण रूप से व्याख्या स्वयं मनुष्यता पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा करेगी | जिसके परिणाम शायद क्षितिज पर हम अभी से देख पा रहे हैं | जितनी जल्दी हम सावचेत होंगे मनुष्यत्व की अस्मिता के लिए उतना ही बेहतर होगा |