Sunday 15 February 2015

Are the standard tests good measure of ability or progress



Are the standard tests good measure of ability or progress

अक्सर बालकों को विद्यालय जाते हुए जब कोमल कन्धों पर भारी बस्तों को देखते हैं तो स्वाभाविक प्रश्न कोंधता है इसकी परिणित किस रूप में होगी और तत्काल प्रतिध्वनित होते हुए उत्तर भी मिल जाता है इसका गंतव्य तो अनिश्चित है किन्तु मार्ग परीक्षाओं और टेस्ट्स की अंतहीन प्रक्रियाओं से होकर गुजरता है तो क्या ये टेस्ट्स जो बालकों और युवाओं के विभिन्न पैमानों पर जांचने हेतु प्रयुक्त होते हैं तो किस हद तक अपने प्रयोजन में सफल होते हैं आइये इन्ही कुछ प्रश्नों पर विचार करते हैं
                        अमूमन परीक्षाओं और टेस्ट्स को आधुनिकता से जोड़ा जाता है की ये पश्चिम की दें हैं किन्तु नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में तो यह कहा जाता है की वहां के सुरक्षा प्रहरी आगंतुक से कुछ प्रश्न करते थे तत्पश्चात आगंतुक की योग्यता को जांच परखने के बाद उपर्युक्त पाए जाने पर ही प्रवेश देते थे तो इससे ये द्रष्टिगत होता है की एक तो ये टेस्ट कोई आधुनिक परंपरा की ही देन नहीं है और दुसरे इन टेस्ट्स का प्रयोजन होता है व्यक्ति की योग्यता को जांचना की अमुक व्यक्ति किस हद तक किसी पद विशेष या संस्थान में प्रवेश हेतु सार्थक है|
                  वर्तमान परिपेक्ष्य में हम इन दोनों विकल्पों पर विचार करते हैं की टेस्ट्स लेने की संगतता किस हद तक न्यायोचित है और इसके दुसरे पक्ष पर भी विचार करते हैं
                   यदि हम प्रथम विकल्प को देखें की वर्तमान में टेस्ट्स के प्रयोजन की सार्थकता क्या है | वर्तमान समय पुरातन समय से अलग है यहाँ योग्यता के साथ साथ आगंतुकों की भारी भीड़ को छांटने हेतु भी टेस्ट लिए जाते हैं | विद्यालय स्तर पर नर्सरी से ही बालक टेस्ट की अंतहीन प्रक्रिया से गुजरता है यह तो मानना होगा की बदौलत ही बालक में एक प्रतिस्पर्धा की भावना विकसित होती है जो की आगे चलकर उसे मानसिक रूप से कड़ी प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करता है | इन्ही टेस्ट्स की बदौलत हमें तकनीक और प्रबंधन के क्षेत्र के शिखर पुरुष मिले हैं | स्वयं बिल गेट्स भी SAT के टेस्ट में सर्वाधिक अंक प्राप्त कर हार्वर्ड में प्रवेश हेतु स्वयं को सिद्ध कर चुके थे चाहे बाद में स्वयम ही उन्होने कोलेज बीच में छोड़ दिया हो | बिल गेट्स, सन माइक्रोसिस्टम के संस्थापक विनोद खोसला, RBI के वर्तमान गवर्नर रघुराम राजन आदि के रूप में अंतहीन श्रंखला है | तो क्या ये टेस्ट की निर्विविदता को साबित नहीं करते किन्तु किसी परिणाम पर पहुँचने से पहले हमें इसके दुसरे पक्षों पर भी विचार करना होगा की यदि ये टेस्ट्स ही अंतिम पैमाना होते तो बिल गेट्स, मार्क जकरबर्ग अपना कॉलेज बीच में ही नहीं छोड़ते | माइक्रोसॉफ्ट के CEO सत्या नाडेला मनिपाल univ. जैसे साधारण कॉलेज से पढ़कर भी इतने बड़े कॉलेज को सुशोभित नहीं करते | ये टेस्ट वर्तमान में सिर्फ तनाव सृजित करने का माध्यम बन चुके हैं | बचपन जो की स्वछंदता का प्रतीक होता है और युवावस्था जो की नए विचारों के मंथन स्वरूप नए विचारों व नवोन्मेष के कार्यों में स्वयं को समर्पित करने हेतु होती है वे आजकल सिर्फ अवसादग्रस्तता की पर्याय बन चुकी है आत्म हत्याओं की दर में नाटकियता पूर्वक वृद्धि हो रही है | यह भी एक विवाद का विषय है की क्या एक दिन या 2-3 घंटे में ही हम किसी के जीवन भर या वर्ष भर की नवोंमेषता को चेक कर सकते हैं | दबाव में कई बार टूट जाने के कारण उस पर असफल होने का ठप्पा लग जाता है | IQ और उसके बाद आई EQ जैसी अवधारणाएं पारंपरिक टेस्ट की धज्जियां उड़ती हैं और सिद्ध करती हैं की क्यूँ पारंपरिक टेस्ट किसी व्यक्ति की क्षमता और सफल होने की जांच करने का उचित आधार नहीं है
                    अब हम उस स्थति की कल्पना करते हैं जब टेस्ट्स और परीक्षा जैसी प्रक्रियाओं को सामान्य जिंदगी से अलग कर दें तो अब कैसी स्थति होगी | यह तो स्वीकार करना होगा की किसी संस्थान विशेष में प्रवेश हेतु तो टेस्ट ही एकमात्र विकल्प दीखता है वरना एक अनार सौ बीमार जैसी समस्याओं से कैसे निपटा जाएगा | किन्तु हाँ इसके पैटर्न में कुछ बदलाव लाया जा सकता है तथा इन्हें और ज्यादा समावेशी बनाया जाए | संस्थाओं से इतर जाने पर जब हम विद्यालों और कॉलेज स्तर पर जाते हैं तो हम टेस्ट की वस्तुनिष्ठता और जकड़न को ढीली करने का प्रयास अवश्य कर सकते हैं | जैसे भारत सरकार का हालिया कदम की आठवीं तक किसी को फेल करने की संभवनाओं को समाप्त करता है | इससे बालक चीज़ों को रटना कम करेगा क्यूंकि परंपरागत टेस्ट रटंत विद्या को मापने के पर्याय बन चुके हैं | आइन्सटीन के बारे में एक मिथक है की वे आरंभिक शिक्षा के स्तर पर एक कमज़ोर विद्यार्थी थे किन्तु इसका दूसरा पहलू यह है की जिस तरीके की परीक्षा पद्धति थी उसमे उन्हें फेल होना ही था | एक वैज्ञानिक को आप सामाजिक, शास्त्रीय विषयों की जांच से नहीं परख सकते हो |
                     इस सन्दर्भ में प्रसाद की प्रसिद्द पंक्तियों को उधत करना समीचीन होगा “ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है, क्यूँ इच्छा पूरी हो मन की“ अर्थात जब व्यक्ति का ज्ञान कुछ और है, उसका कार्य क्षेत्र कुछ और है और उसकी इच्छा या आकांक्षा कुछ और है तो वह सदैव ही वह स्वयं को दुविधाग्रस्त ही पायेगा जो उसे अवसादग्रस्तता की ओर ले जायेगी | अतः परीक्षाओं का उदेश्य यह होना चाहिये की व्यक्ति किस क्षेत्र के अनुकूल है उसे क्या प्रयास करने चाहिए न की यह जांचने के लिए की क्या वह परीक्षा विशेष में सफल होता है या असफल |
                      इसमे संदेह नहीं की वर्तमान टेस्ट प्रणाली ने अकादमिक क्षेत्र में कई शलाका पुरुष दिए हैं किन्तु साथ ही यह भी स्वीकार करना होगा की चित्रकार मकबूल फ़िदा हुस्सेंन, क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर, कार्टूनिस्ट आर.के.लक्ष्मण हमारे दिग्गज राजनेता, साहित्यकार परंपरागत टेस्ट प्रणाली को मुंह चिढाते प्रतीत होते हैं | आइंस्टीन ने इस सन्दर्भ में सही ही कहा है की यदि मछली की काबिलियत को आप इस आधार पर जांचे की वह कितनी कुशलता से वृक्ष पर चढ़ सकती है तो वह परंपरागत प्रणाली में मूर्ख की ही श्रेणी में ही आएगी |
                         अतः आवश्यकता है की वर्तमान टेस्ट प्रणाली को ज्यादा खुली बनाई जाए जैसा की टेगोर के शान्ति निकेतन में होता था जहां परंपरागत क्लास रूम की बजाय नीले आकाश तले शिक्षा को प्राथमिकता दी जाती थी | अमर्त्य सेन और सत्यजीत रे ऐसी ही शिक्षा की उपज थे | टेस्ट को सीमित तौर पर ही स्वीकार किया जाना चाहिए किन्तु कुछ आंकड़ों की आधार पर किसी की क्षमता को परखने के प्रयास से हमें बचना होगा | इस सन्दर्भ में वर्तमान शिक्षा प्रणाली ही नहीं हमें अपनी मानसिकता भी बदलनी होगी जो की आग्रहपूर्वक सिर्फ परीक्षा के परिणाम के आंकड़ों पर ही केन्द्रित रहता है     

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