Nationalism and
Internationalism are opposing and mutually exclusive
चिरकाल से अद्यतन यदि
मनुष्य की विकास यात्रा पर द्रष्टिपात करें तो स्पष्ट पता चलता है की किस प्रकार
मनुष्य अतीत में स्वतन्त्र था, उसकी आवश्यकताएं सीमित थीं, संसाधनों की प्रचुरता
थी और संस्कृति में साम्यता थी | धीरे धीरे मानव प्रजाति का विसरण, संस्कृतियों का
विकास हुआ, आवश्यकताओं में वृद्धि हुई | संसाधनों के दोहन का संघर्ष प्रारम्भ हुआ
| इसी प्रक्रिया में भौगोलिक प्रदेश विशेष पर आधिपत्य की प्रतिस्पर्धा और उत्तरोतर
विकसित सांस्कृतिक विषमता ने राष्ट्र की परंपरा को जन्म दिया जो आरम्भ में भौगोलिक
प्रदेश से सीमांकित होता था किन्तु धीरे धीरे इसमे संस्कृति, सामजिक थाती और
परम्पराओं का भी मिश्रण प्रारम्भ हुआ और इस प्रकार से राष्ट्रों का उदय हुआ जो
अपने स्वरुप में अपने पडोसी से कई विषमताएं रखते है | यह विषमता भौगोलिक से लेकर
समाज, संस्कृति, राजनीति हर पहलू में दिखाती है | इसी कारण तनाव का सर्जन हुआ और
यह धारणा बलवती होती गयी की राष्ट्रवाद और अंतरराष्ट्रीयवाद दो विरोधी विचारधाराएं
हैं | ‘जीरो सम गेम’ जैसी शब्दावलियों को गढ़ा गया और कहा गया की एक राष्ट्र का हित
दुसरे राष्ट्र की अहित की वेदी पर ही होगा | तो क्या राष्ट्रवाद और अंतरराष्ट्रीयवाद
दो परस्पर विरोधी विचार हैं | आइये इससे जुड़े विभिन्न पहलूओं पर विचार कर यह
विश्लेट करने का प्रयास करते हैं की यह विरोध कहाँ तक न्यायोचित है |
यहाँ हमें राष्ट्रवाद के संकीर्ण अर्थ से बचते हुए चर्चा करनी होगी क्यूंकि राष्ट्रवाद अपने संकीर्ण अर्थों में तर्कों को नकार देता है और यह मिथ्या भाव भर देता है की उनका राष्ट्र और उनकी संस्कृति any राष्ट्रों से श्रेष्ठकर हैं | यदि हम राष्ट्रवाद के संकीर्ण अर्थ से निकलें तो साफ़ द्रष्टिगत होता है की राष्ट्र को आगे ले जाने के लिए उठा कोई भी कदम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मानव जाति को भी आगे ले जाएगा | एक राष्ट्र की अपनी गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण जैसी समस्याओं से लड़ने का फायदा अंतिमतः मानव जाति को ही होगा |
यहाँ हमें राष्ट्रवाद के संकीर्ण अर्थ से बचते हुए चर्चा करनी होगी क्यूंकि राष्ट्रवाद अपने संकीर्ण अर्थों में तर्कों को नकार देता है और यह मिथ्या भाव भर देता है की उनका राष्ट्र और उनकी संस्कृति any राष्ट्रों से श्रेष्ठकर हैं | यदि हम राष्ट्रवाद के संकीर्ण अर्थ से निकलें तो साफ़ द्रष्टिगत होता है की राष्ट्र को आगे ले जाने के लिए उठा कोई भी कदम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मानव जाति को भी आगे ले जाएगा | एक राष्ट्र की अपनी गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण जैसी समस्याओं से लड़ने का फायदा अंतिमतः मानव जाति को ही होगा |
पिछले दशक के उतरार्ध से शुरू
हुई अरब क्रान्ति यही सन्देश देती है | टूनिसिया से शुरू हुई क्रान्ति जिसे चमेली
क्रान्ति (jasmine revolution) भी कहा गया, ने सम्पूर्ण अरब प्रदेश को अपने प्रभाव
क्षेत्र में समाहित कर लिया | टूनिसिया, लीबिया, मिश्र, यमन, जॉर्डन जैसे देश एक
एक कर इसके प्रभाव में आते गए | ये क्रांतियाँ अपने राष्ट्र विशेष के सन्दर्भ से
ही उद्भासित हुई थी किन्तु सभी का उदेश्य एक ही था अपने राष्ट्र के हितों का रक्षण
इसी कारण सत्तासीन तानाशाहों के खिलाफ अरब प्रदेश में अभूतपूर्व एकता दर्शाई |
राष्ट्रवाद और अंतरराष्ट्रीयवाद किस प्रकार साझा सह अस्तित्व रख सकते हैं | अरब
प्रदेश इसका ज्वलंत उदाहरण है | प्रथम विश्व के शुरूआती चरण में अंतरराष्ट्रीय
कम्यून के सदस्यों ने मिलकर यह निर्णय लिया था की वे हर युद्ध का विरोध करेंगे |
इसी कारण उनकी तत्कालीन तथाकथित राष्ट्रवादियों के साथ तीखी झड़पें भी हुई थी |
उनका उदेश्य राष्ट्र विरोधी नहीं था अपितु वे तो राष्ट्र के लोगों को यह सन्देश
देना चाहते थे की युद्ध से अंततः एक राष्ट्र के रूप में उनका स्वयं का ही नुकसान
होगा किन्तु युद्ध के तुमुलनाद में उनकी आवाजें दबा दी गयी परन्तु युद्ध के
परिणामों ने उनकी आशंकाओं को सही साबित कर दिया था | युद्ध के परिणामों का सबसे
भीषण असर राष्ट्र के सबसे कमज़ोर तबके पर ही था |
अक्सर राष्ट्रवाद और अंतरराष्ट्रीयवाद
की चर्चा में गांधी और टैगोर की चर्चा की जाती है | टैगोर को अंतरराष्ट्रीयवादी
प्रकृति प्रेमी तो गांधी को राष्ट्रवाद के अगुआ और सीमित अर्थो में अंतरराष्ट्रीयवाद
के विरोधी के तौर पर पेश किया जाता है किन्तु गुज़रते वक्त ने इस विरोध की रेखा को
बहुत धुंधला कर दिया है गांधी जी वैसे भी अंतरराष्ट्रीयवाद के उस मायने में विरोधी
नहीं थे साथ ही उनका राष्ट्रवाद भी संकीर्ण नहीं था वे तो स्वयं अंग्रेजी भाषा को
बहुत आदर करते थे किन्तु उसका स्थान हिंदी को देने के सख्त विरोधी थे गांधी का
आग्रह सिर्फ ब्रिटिश भेद मूलक नीतियों पर तथा भारत की गरीबी अशिक्षा छुआ छूत जैसी
बुराइयों पर था किन्तु अब जबकि इन मुद्दों पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय मिलकर काम कर
रहे हैं उससे गाँधी टैगोर का विवाद वैसे भी अप्रासंगिक हो जाता है | यहाँ गांधी का
ग्राम स्वराज का मुद्दा कुछ बचा रह जाता है परन्तु यह मुद्दा राष्ट्रवाद का कम और
आर्थिक आत्मनिर्भरता का ज्यादा है |
भारत तो स्वयं ही अतीत से ही ‘वसुधैव
कुटुम्बकम’ की अवधारणा का अगुआ रहा है | जब चाणक्य ने राष्ट्रवाद की धारणा को
पुष्ट करते हुए जब संयुक्त विशाल भारत वर्ष की कल्पना को मूर्त रूप दिया तो तो बड़ा
विचित्र सा लगता है की किस प्रकार उसके कुछ ही समय बाद अशोक ने उस परंपरा को अंतरराष्ट्रीयवाद
के सांचे में ढाल कर भातृत्व प्रेम का सन्देश फैलाया | जब हेन्सांग भारत से विदा
ले रहा था तो भारतीय साथियों द्वारा भारत में ही रुके रह जाने के आग्रह पर
हेन्सांग ने भारतीय परम्पराओं के प्रति श्रद्धा दर्शाते हुए अपने देश के प्रेम पाश
में बंधे होने की व्यथा बताई, हेन्सांग का राष्ट्रप्रेम किसी भी तरह से अंतरराष्ट्रीयवाद
का विरोधी नहीं था | अपितु उन्ही के प्रयासों से भारत-चीन संवाद परंपरा को नए आयाम
मिले |
ख्यातनाम अर्थ शास्त्री अमर्त्य
सेन ने अपनी पुस्तक ‘न्याय का सिद्धांत’ में बड़े अच्छे तरीके से बताया है की न्याय
के अंतिम लक्ष्य अंतरराष्ट्रीय न्याय की प्राप्ति हेतु यदि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को आधार मानें तो यह रास्ता विभिन्न राष्ट्रों के आपसी संवाद से ही आता है | यूरोपियन यूनियन इसका
बहुत अच्छा उदाहरण है चाहे सीमित अर्थों में ही सही किनती यदि सभी राष्ट्र यह
स्वीकार कर लें की उनके कुछ न्यूनतम हित सभी के साथ साझा है तो राष्ट्रवाद, अंतरराष्ट्रीयवाद
के आड़े कभी नहीं आएगा | UN द्वारा MDG लक्ष्य निर्धारित और उन्हें प्राप्त करने के
प्रयास इसी की बानगी है |
जलवायु परिवर्तन के इस दौर
में वैसे भी यह व्यवहारिक है की हम सब मिलकर प्रयास करें क्यूंकि राष्ट्रवाद की संकीर्ण
मान्यताओं के आधार पर तो शायद एक राष्ट्र को फायदा हो सकता है किन्तु अंततः नुकसान
पूरे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का और मानव जाति का ही होगा | किसी एक देश के कार्बन
उत्सर्जन का असर किसी छोटे देश के अस्तित्व पर ही खतरा उत्पन्न कर सकता है | संचार
क्रांति और ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में यह अपरिहार्य है की हम मिलकर प्रयास करें
ताकि सभी को साझा लाभ हो | जैसा की हमारे प्रधानमंत्री जी ने कहा भी है की अब समय आ गया है की सब G-8, G-20 से आगे जाकर G-ALL पर विचार करें |
किन्तु इस सारी प्रक्रिया में
संशय की थोड़ी सी धुंध भी घटाटोप मेघगर्जन कर सकती है | दो राष्ट्रों के बीच यदि
संदेह बढ़ता जाए तो वह हथियारों की दौड़ को और बढ़ाएगा | युक्रेन विवाद ने पुनः विश्व
को शीत युद्ध का सा आभास दे दिया है | भारत पाक विवाद के संदर्भ में भी यह
सोचना एक बार तो बेमानी लगता है की क्या कभी ये दो देश अंतरराष्ट्रीयवाद के सांचे
में फिट बैठ पायेंगे | नुक्लेअर हथियारों, हथियारों की दौड़, आतंकवाद जैसी घटनाओं
ने दोनों देशों की जनता को असुरक्षा तथा भय के माहोल में पहुंचा दिया है |
आवश्यकता है की संदेह के बादलों को हटाया जाए नदियों को बांटने वाली डोरी न मानकर
विश्व धरोहर की हिस्सेदारी पूर्ण दाय माना जाए | ऐसे प्रयास हो की मानसून की धमक
से भारत पाक एक साथ सौहार्द्र की बारिश में भीग जाए | पंचशील, गुजराल सिद्धांत के
रूप में ऐसे प्रयास किये भी गए हैं, जिन्हें और आगे ले जाने की आवश्यकता है |
हमारा साझा अतीत और अंतर्राष्ट्रीय अनुभव हमें इसके सकारात्मक संकेत देते हैं |
समग्र तौर पर देखें
तो राष्ट्रवाद और अंतरराष्ट्रीयवाद विरोधाभासी नहीं है क्यूंकि अंतिम लक्ष्य तो
दोनों का ही मानव मात्र का उत्थान ही है | कुछ संकीर्णताएं हैं किन्तु उन्हें
मिटाने के प्रयास किये जा सकते हैं तथा समाधान के बिंदु हमें राष्ट्रवाद और अंतरराष्ट्रीयवाद
में खोजने पर मिल ही जायेंगे |