Sunday, 10 May 2015

You can lead a horse to water, but you can’t make him drink



       You can lead a horse to water, but you can’t make him drink

एक ही विद्यालय में पढने वाले छात्र कालांतर में अलग अलग महाविद्यालयों में जाते हैं | सफलता असफलता प्रदर्शन सभी कुछ में भिन्नता वांछनीय होती है | एक ही समय में ऊद्भवित हुए राष्ट्र कालांतर में विकास के मानदंडों में काफ़ी भिन्नता रखते हैं | नीतियाँ सभी के लिए समान होती हैं, फिर भी कुछ लोग या संगठन ज्यादा तो कुछ कम परिणामोन्मुखी होते हैं | इन सब अंतरों के मूल में परिस्थतियों की भिन्नता होना तो अवश्यम्भावी और अपरिहार्य है किन्तु वह चीज़ जो सभी में साम्य रखती है, वह है- लोग या संगठन अपने पथ प्रदर्शक द्वारा दिखाए गए मार्ग पर किस प्रकार और किस गति से चलते हैं | इसी को अंग्रजी की एक कहावत इस रूप में निरुपित करती है – हम घोड़े को पानी के स्रोत तक ले जा सकते हैं किन्तु उसे ज़बरदस्ती पानी नहीं पिला सकते अंततः पानी तो घोड़े को ही पीना होता है
              विंस्टन चर्चिल द्वितीय विश्व युद्ध के समय अपने ऊत्र्कष्ट भाषणों के माध्यम से राष्ट्र को संबोधित कर रहे होते हैं तब भी अंततः वह उनके सैनिक ही थे उनकी पूरी रणनीति और भावाभिव्यक्ति को असल में अमल में ला रहे होते हैं | महान से महान से नेता भी राष्ट्र को अच्छी दिशा दिखा सकता है किन्तु राष्ट्र को महान उसके नागरिक ही बनाते हैं – महानता से सीधा सा आशय है राष्ट्र के नागरिकों के कृत्य | जर्मनी, जापान जैसे कई देश जो द्वितीय विश्व युद्ध के समय अपना सब कुछ खो चुके थे, यदि वर्तमान में उनके विकास का चित्र मस्तिष्क में उभरता है तो अनायास ही मन उन राष्ट्रों के नागरीकों के प्रति श्रद्धावनत हो जाता है | कोई भी सरकार सिर्फ आधारभूत सरंचना दे सकती है प्रबंधन कर सकती है किन्तु उत्कृष्ट परिणाम तो वहाँ के नागरिक ही देते हैं
       आर्थिक मोर्चों पर इतनी नीतियां बनाई जाती है | 80 के दशक से ही स्व सहायता समूह (SHG) कई नीतियों के केंद्र में रहा है किन्तु धीरे धीरे इनकी कमियाँ द्रष्टिगत हो रही है कई SHG सुलभ ऋण को अच्छे से प्रयोग में नहीं ला पा रहे हैं | धारनीयता (sustainability) के सन्दर्भ में देखें तो वे प्राप्त ऋण से उत्पादक उद्योग नहीं लगा पा रहे हैं | इसी प्रकार RBI मौद्रिक नीति में बदलाव करता है किन्तु अंततः यह बैंकों के विवेक पर ही निर्भर करता है की वे कितना , किस प्रकार और कब उस नीति को जनता के लाभ की दिशा में मोड़ते हैं | हमारे पंचायती राज संस्थाओं को संविधान प्रदत शक्तियों की उपादेयता इसी में अन्तर्निहित है की वे वे उनका उपयोग करते हैं तो किस प्रकार करते हैं |
              अंतर्राष्ट्रीय मोर्चों पर UN जैसी संस्थाएं MDG जैसे कई लक्ष्य निर्धारित करती है किन्तु उनका क्रियान्वयन को राष्ट्र की सरकारों को ही करना होता है | देश जनसँख्या नीति बना सकते हैं, जागरूकता फैला सकते हैं किन्तु अनुपालना तो जनता को ही करनी होती है और अंततः परिणाम भी उसी पर निर्भर करते हैं | जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित सारे वैज्ञानिक प्रेक्षण, IPCC की सारी रिपोर्टें और सारे जलवायु सम्मेलनों का सार यही है की | प्रथ्वी को इस अंधाधुंध दोहन से हम किस प्रकार और कब तक बचायेंगे तो इसके उत्तर के मूल में यही की हम क्या प्रयास करते हैं. यदि प्रयास करते हैं तो कितना प्रभावशाली तरीके से करते हैं |
              सारे धर्म हमें नैतिकता का ही पाठ पढ़ाते हैं किन्तु यह व्यक्ति पर निर्भर करता है की वह उनकी व्याख्या किस प्रकार करता है, उन सिद्धांतों को अमल में लाता भी है क्या | बुद्ध के सिद्धांतों से ऊंगलिमार डाकू भी सन्यासी बन जाता है वही कुछ धर्मांध लोगों पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ता | धर्म हमें नैतिकता का पथ दिखा सकते हैं मानवीय जीवन की उपादेयता के सिद्धांत बता सकते है किन्तु यह अंततः हमारे अन्तःकरण पर निर्भर करता है की हम वास्तव में क्या करना चाहते हैं | अन्यमनस्कता से किया गया कोई भी कार्य यथोचित फल नहीं देता है जैसा की छान्दोक्य उपनिषद में लिखा भी है
“वह जो हमारी गहरी अंतःकरण की संवेदना है, वही हमारी इच्छा है, जो हमारी इच्छा है वही हमारा कर्म है और जो हमारा कर्म है वही हमारा भाग्य है”
       वर्तमान दौर में इसकी प्रासंगिकता और बढ़ जाती है | जब हमारे पास सूचनाओं का भण्डार है \ नीतियों का बाहुल्य है | मार्गदर्शकों की कोई कमी नहीं है | प्रश्न वही है क्या हम वास्तव में वह करना चाहते हैं | यदि हमारे अंतःकरण में वह करने की इच्छाशक्ति है तो हम दिखाए गए पथ पर अग्रसित होकर नीतियों को अमली जामा पहना सकेंगे, क्यूंकि वर्तमान में क़ानून का न होना या नीतियों का न होना कोई समस्या नहीं है असल समस्या है उनके क्रियान्वयन में प्रबल इच्छाशक्ति का अभाव | जिस प्रकार नैतिकता के ऊपर कोई क़ानून नहीं बनाया जा सकता उसी प्रकार से सिर्फ नीतिगत बाध्यता से किसी नीति के सही परिणाम दे देने में संशय की पूरी गुंजाइश रहती है |
              इस प्रकार किसी भी नीति या क़ानून या नीति के सन्दर्भ में हमें अपने अन्तः कारन में झांकना होगा | क्या हम सिर्फ भ्रस्ताचार क़ानून चाहते हैं या वास्तव में भ्रस्ताचार मुक्त समाज भी चाहते हैं | ऐसा समाज जिसका हम स्वयं भी अंग होगा जिसमे हम स्वयं भी क़ानून की कमजोरियों को कभी ढाल बनाकर स्वयं के बचाव का प्रयास नहीं करेंगे | क्या गाँव के सरपंच होने के नाते हम वास्तव में चांगे की नरेगा जैसे अगणित सरकारी कार्यक्रम अपने मूल उदेश्य लोक कल्याण को फलीभूत करें | क्या हम वास्तव में महिलाओं को बराबरी का दर्जा देना चाहते हैं | क्या हम वास्तव में लिंग आधारित भेदभाव नहीं करते | इस प्रकार के असंख्य प्रश्नों के उत्तर हमें स्वयं में खोजने होंगे तभी हम अंततः उन सारी नीतियों की सार्थकता सिद्ध कर पायेंगे अन्यथा वे सिर्फ नेमी योजनायें बनकर रह जायेंगी और हम सिर्फ उनकी रस्म अदायगी के निमित्त मात्र

Sunday, 26 April 2015

शब्द दोधारी तलवार से अधिक तीक्ष्ण होते हैं



           Words are sharper than the two-edged sword (शब्द दोधारी तलवार से अधिक तीक्ष्ण होते हैं)
 
आपसी संवाद जीवमात्र की चेतना का प्रतिबिम्ब होता है | जिसे सभी जीव अपने स्तर पर करते हैं, मनुष्य सभी जीवों में परिष्कृत है तो स्वाभाविकतः उसका संवाद का स्तर भी काफी परिमार्जित है | इस संवाद की पूरी प्रक्रिया की आधारभूत कड़ी हमारे शब्द होते हैं जो की हमारे विचारों, मनोभावों के सम्प्रेषण का माध्यम होते हैं | आइये अब शब्दों की इसी जादूगरी पर विचार करते हैं जिनके बारे में अक्सर सुनने को मिलता है की शब्द दोधारी तलवार से ज्यादा तीक्ष्ण होते हैं
       दोधारी तलवार से हमार सीधा सा आशय होता है की जो प्रयोक्ता को उसी परिमाण में हानि करती है जितनी की उस पर, जिस पर की उसका प्रयोग किया जाता है | अक्सर प्रयोक्ता को हुई हानि सापेक्षिक रूप से कहीं ज्यादा होती है तो शब्दों और वाणी के सन्दर्भ में यह कैसे होता है कि बोलने वाला स्वयं ही अपने रचे तीक्ष्ण शब्दों के मायाजाल से आहात हो जाता है | आइये इसे समझने का प्रयास करते हैं
       पहले तो हमें मितभाषी शब्द को समझना होगा जो कम बोलता हो वह शब्दों का चयन भी उचित करे यह कोई आवश्यक नहीं है | जैसा की 500 वर्ष पूर्व रहीम ने कहा -
               “ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोये |
                औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए” ||      
                       तो यहाँ वे वाणी की शीतलता पर जोर देते हैं न की मितव्यवता पर किन्तु आश्चर्यजनक रूप से शब्दों के दुधारेपन का शिकार अक्सर वे ही होते हैं जो की अपेक्षाकृत ज्यादा बोलते हैं | इसी सन्दर्भ में गांधी जी के अवलोकन का उल्लेख करना समीचीन होगा जहां ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में वे लिखते हैं “मैं अक्सर कम बोलता था और अपनी बात प्रभावशाली तरीके से नहीं रख पाता था किन्तु दीर्घकाल में मुझे इसका बहुत लाभ हुआ क्यूंकि मुझे कभी अपने कहे हुए का पछतावा नहीं करना पड़ा” यहाँ गांधीजी मितभाषी होने और शब्दों के चयन में सावधानी बरतने, दोनों पर जोर देते हैं |
                                हमारे शास्त्र अनादि काल से ही वाणी के संयम की महत्ता पर जोर देते आये हैं | जैन धर्म में तो वाणी के स्तर पर भी हिंसा का निषेध है | बौद्ध साहित्य में अक्सर ज़िक्र आता है की किस प्रकार कटु वाणी का प्रत्युत्तर बुद्ध गहरी स्मिति से देते थे | सारतः यह कहा जा सकता है की मीठा बोलना श्रेयस्कर है | आखिर कर्णप्रिय संवाद को कौन पसंद नहीं करेगा | इसके तो लाभ ही लाभ हैं तभी तो नक्सलवाद की समस्या से निपटने के लिए गृह मंत्रालय की और से आग्रहपूर्वक CAPF को यह निर्देश दिए गए की वे स्थानीय निवासियों से संवाद कायम करें | किन्तु इन सबके बीच क्या यह कहा जा सकता है की तीक्ष्ण वचन इसी अनुपात में हानि भी कर सकते हैं जिस अनुपात में मीठे बोल लाभकारी होते हैं ? आइये अब इस पर विचार करते हैं की तीक्ष्ण शब्दों के प्रयोग से आखिर हानि क्या होती है |
              सबसे पहले तो तीक्ष्ण बोल हमारे वार्तालाप की तटस्थता समाप्त कर देते हैं | सुनने वाला हमारे मूल मुद्दे पर कम ध्यान देगा और उसके दुसरे आयाम खोजने का प्रयास करेगा | इससे हम कभी सामने वाले तक अपनी बात ठीक प्रकार से नहीं पहुंचा पायेंगे | इसी कारण जनसंपर्क विभाग सदैव ही इस बात पर जोर देते है की हम क्या और कैसे संप्रेषित करते हैं | हमारे क्रोध के तीक्ष्ण उद्गार अक्सर ही हमारी अवचेतना के उद्गार होते हैं और इसके कुछ शब्द ही, संबंधों को सदा के लिए खराब कर सकते हैं क्यूंकि शब्द निरपेक्ष नहीं होते हैं इनमें मानवीय भावनाओं का रस मिला ही होता है कठोर शब्द इन सभी भावनाओं का अतिव्यापन कर लेते हैं | विशेषकर सार्वजनिक जीवन में इसका ध्यान रखा जाना चाहिए | वेनेजुएला के राष्ट्रपति ‘ह्यू चावेज़’ जब UN की महासभा को संबोधित करने गए तो अपने संबोधन में उन्होने तत्कालीन US राष्ट्रपति जोर्ज बुश (जिन्होंने की उनसे ठेक पहले महासभा को संबोधित किया था) के लिए ‘शैतान’ शब्द का प्रयोग किया था और कहा था की उनसे ठीक पहले इस मंच पर एक शैतान आया था | कहना न होगा की चावेज़ की इन दो पंक्तियों ने दोनों देशों के संबंधों को बद से बदतर बनाने में क्या भूमिका निभाई होगी |
              हमारे तीक्ष्ण शब्द हमें बाद में सिर्फ पछताने का ही अवसर देते हैं | उनसे संबंधों में आया दुराव संवाद के स्तर पर ठीक करना काफी दुष्कर कार्य होता है | यह समस्या विकराल रूप इसलिए ले लेती है की मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है वह स्वयं में की विलगित इकाई नहीं है | हम जो कहते हैं. उसके परिणामों की जिम्मेदारी भी हमारी स्वयं की ही होती है | यह एक तरह से अधिकार और दायित्व की परंपरा का ही अंग है | जिस प्रकार ज्यादा अधिकार स्वतः ही हम पर अंकुश लगा देते हैं अधिकारों के आलोक में लिए गए निर्णयों की जिम्मेदारी भी हमारी स्वयं की ही होती है | उसी प्रकार तीक्ष्ण शब्द एक प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं जो की किसी भी रूप में हो सकती है और अपने हर स्वरूप में वह खतरनाक होती है | भारत के पूर्व विदेश सचिव शिवशंकर मेनन ने इस सन्दर्भ में सटीक कहा था, जब वे एक राजनयिकों के आख्यान को संबोधित कर रहे थे | उन्होने कहा था “ज़िन्दगी बहुत आसन होती, यदि हमें सिर्फ अपने आप से जूझना पड़ता किन्तु वास्तविक ज़िन्दगी में दुसरे व्यक्तियों से संवाद करना होता है, जूझना होता है, उनके मनोभाव समझने होते हैं” तो निसंदेह इस प्रक्रिया में हमारे शब्दों का चयन बहुत अमोघ औषधि का कार्य करते हैं | वास्तविक जीवन में हम कोई द्वीप नहीं है | हम एक ऐसे गठबंधन का हिस्सा हैं जो कई रूपों में जुड़ा हुआ है |
              हिंदी के प्रसिद्द कवि निराला नै अपनी रचना 'कुकुरमुत्ता' में कुकुरमुत्ता और गुलाब के आपसी संवाद के माध्यम से बड़ी खूबसूरती से दिखाया है की किस प्रकार कुकुरमुत्ता के गलत शब्दों के चयन से उसकी पूरी प्रष्ठभूमि, उसकी व्यग्रता, उसकी कुंठा खुलकर सामने आ जाती है | बिल गेट्स की कंपनी माइक्रोसॉफ्ट जब इन्टरनेट एक्स्प्लोरर बनाती है तो इसकी प्रेरणा उन्हें उन पूर्वगामियों से मिलती है जिन्होंने इन्टरनेट गेटवे में सबसे पहला कदम रखा था और माइक्रोसॉफ्ट पर तंज़ कसे और उसका मज़ाक उड़ाया था | आधुनिक प्रतिस्पर्धी युग में यह सर्वविदित है की जो विचार को सबसे पहले मूर्त रूप देता है वही विजेता होता है किन्तु उन पूर्वगामियों का बडबोलापन ही था की एक ही वर्ष के भीतर वे बाज़ार से बाहर हो गए थे | इसी बडबोलेपन का शिकार हमारे राजनितिग्य अक्सर होते हैं | वे अक्सर भावावेश में कुछ कह देते हैं और बाद में माफ़ी मांगते हैं किन्तु गलत शब्दों के चयन का परिणाम काफी भयावह होता है जो की लम्बे समय तक उनकी छवि का पीछा करता है | आज के इस संचार के दौर में यह और ज्यादा आवश्यक है की हम शब्दों के चयन में सावधानी बरतें क्यूँ की सूचनाएं इतनी तेज़ी से फैलतीं है की बहुत बार हमें अहसास हो उससे पहले शब्द रुपी दोधारी तलवार अपना काम कर चुकी होती है |
                                                                  अतः आवश्यकता है की हम शब्द रुपी खजाने में से ऐसे मुक्तामणि चुनें जिन्हें बिखेरकर हम संवाद की परंपरा को और अधिक मजबूत कर सकें तथा हम आश्वस्त हो पाएं की हमारे शब्द और वाणी किसी भी समस्या के समाधान के पथ को प्रशस्त करेंगे उससे विचलन का कार्य कभी नहीं करें|

Monday, 2 March 2015

Nationalism and Internationalism are opposing and mutually exclusive


                     Nationalism and Internationalism are opposing and mutually exclusive

चिरकाल से अद्यतन यदि मनुष्य की विकास यात्रा पर द्रष्टिपात करें तो स्पष्ट पता चलता है की किस प्रकार मनुष्य अतीत में स्वतन्त्र था, उसकी आवश्यकताएं सीमित थीं, संसाधनों की प्रचुरता थी और संस्कृति में साम्यता थी | धीरे धीरे मानव प्रजाति का विसरण, संस्कृतियों का विकास हुआ, आवश्यकताओं में वृद्धि हुई | संसाधनों के दोहन का संघर्ष प्रारम्भ हुआ | इसी प्रक्रिया में भौगोलिक प्रदेश विशेष पर आधिपत्य की प्रतिस्पर्धा और उत्तरोतर विकसित सांस्कृतिक विषमता ने राष्ट्र की परंपरा को जन्म दिया जो आरम्भ में भौगोलिक प्रदेश से सीमांकित होता था किन्तु धीरे धीरे इसमे संस्कृति, सामजिक थाती और परम्पराओं का भी मिश्रण प्रारम्भ हुआ और इस प्रकार से राष्ट्रों का उदय हुआ जो अपने स्वरुप में अपने पडोसी से कई विषमताएं रखते है | यह विषमता भौगोलिक से लेकर समाज, संस्कृति, राजनीति हर पहलू में दिखाती है | इसी कारण तनाव का सर्जन हुआ और यह धारणा बलवती होती गयी की राष्ट्रवाद और अंतरराष्ट्रीयवाद दो विरोधी विचारधाराएं हैं | ‘जीरो सम गेम’ जैसी शब्दावलियों को गढ़ा गया और कहा गया की एक राष्ट्र का हित दुसरे राष्ट्र की अहित की वेदी पर ही होगा | तो क्या राष्ट्रवाद और अंतरराष्ट्रीयवाद दो परस्पर विरोधी विचार हैं | आइये इससे जुड़े विभिन्न पहलूओं पर विचार कर यह विश्लेट करने का प्रयास करते हैं की यह विरोध कहाँ तक न्यायोचित है |
   यहाँ हमें राष्ट्रवाद के संकीर्ण अर्थ से बचते हुए चर्चा करनी होगी क्यूंकि राष्ट्रवाद अपने संकीर्ण अर्थों में तर्कों को नकार देता है और यह मिथ्या भाव भर देता है की उनका राष्ट्र और उनकी संस्कृति any राष्ट्रों से श्रेष्ठकर हैं | यदि हम राष्ट्रवाद के संकीर्ण अर्थ से निकलें तो साफ़ द्रष्टिगत होता है की राष्ट्र को आगे ले जाने के लिए उठा कोई भी कदम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मानव जाति को भी आगे ले जाएगा | एक राष्ट्र की अपनी गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण जैसी समस्याओं से लड़ने का फायदा अंतिमतः मानव जाति को ही होगा |
                पिछले दशक के उतरार्ध से शुरू हुई अरब क्रान्ति यही सन्देश देती है | टूनिसिया से शुरू हुई क्रान्ति जिसे चमेली क्रान्ति (jasmine revolution) भी कहा गया, ने सम्पूर्ण अरब प्रदेश को अपने प्रभाव क्षेत्र में समाहित कर लिया | टूनिसिया, लीबिया, मिश्र, यमन, जॉर्डन जैसे देश एक एक कर इसके प्रभाव में आते गए | ये क्रांतियाँ अपने राष्ट्र विशेष के सन्दर्भ से ही उद्भासित हुई थी किन्तु सभी का उदेश्य एक ही था अपने राष्ट्र के हितों का रक्षण इसी कारण सत्तासीन तानाशाहों के खिलाफ अरब प्रदेश में अभूतपूर्व एकता दर्शाई | राष्ट्रवाद और अंतरराष्ट्रीयवाद किस प्रकार साझा सह अस्तित्व रख सकते हैं | अरब प्रदेश इसका ज्वलंत उदाहरण है | प्रथम विश्व के शुरूआती चरण में अंतरराष्ट्रीय कम्यून के सदस्यों ने मिलकर यह निर्णय लिया था की वे हर युद्ध का विरोध करेंगे | इसी कारण उनकी तत्कालीन तथाकथित राष्ट्रवादियों के साथ तीखी झड़पें भी हुई थी | उनका उदेश्य राष्ट्र विरोधी नहीं था अपितु वे तो राष्ट्र के लोगों को यह सन्देश देना चाहते थे की युद्ध से अंततः एक राष्ट्र के रूप में उनका स्वयं का ही नुकसान होगा किन्तु युद्ध के तुमुलनाद में उनकी आवाजें दबा दी गयी परन्तु युद्ध के परिणामों ने उनकी आशंकाओं को सही साबित कर दिया था | युद्ध के परिणामों का सबसे भीषण असर राष्ट्र के सबसे कमज़ोर तबके पर ही था |
                        अक्सर राष्ट्रवाद और अंतरराष्ट्रीयवाद की चर्चा में गांधी और टैगोर की चर्चा की जाती है | टैगोर को अंतरराष्ट्रीयवादी प्रकृति प्रेमी तो गांधी को राष्ट्रवाद के अगुआ और सीमित अर्थो में अंतरराष्ट्रीयवाद के विरोधी के तौर पर पेश किया जाता है किन्तु गुज़रते वक्त ने इस विरोध की रेखा को बहुत धुंधला कर दिया है गांधी जी वैसे भी अंतरराष्ट्रीयवाद के उस मायने में विरोधी नहीं थे साथ ही उनका राष्ट्रवाद भी संकीर्ण नहीं था वे तो स्वयं अंग्रेजी भाषा को बहुत आदर करते थे किन्तु उसका स्थान हिंदी को देने के सख्त विरोधी थे गांधी का आग्रह सिर्फ ब्रिटिश भेद मूलक नीतियों पर तथा भारत की गरीबी अशिक्षा छुआ छूत जैसी बुराइयों पर था किन्तु अब जबकि इन मुद्दों पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय मिलकर काम कर रहे हैं उससे गाँधी टैगोर का विवाद वैसे भी अप्रासंगिक हो जाता है | यहाँ गांधी का ग्राम स्वराज का मुद्दा कुछ बचा रह जाता है परन्तु यह मुद्दा राष्ट्रवाद का कम और आर्थिक आत्मनिर्भरता का ज्यादा है |
     भारत तो स्वयं ही अतीत से ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अवधारणा का अगुआ रहा है | जब चाणक्य ने राष्ट्रवाद की धारणा को पुष्ट करते हुए जब संयुक्त विशाल भारत वर्ष की कल्पना को मूर्त रूप दिया तो तो बड़ा विचित्र सा लगता है की किस प्रकार उसके कुछ ही समय बाद अशोक ने उस परंपरा को अंतरराष्ट्रीयवाद के सांचे में ढाल कर भातृत्व प्रेम का सन्देश फैलाया | जब हेन्सांग भारत से विदा ले रहा था तो भारतीय साथियों द्वारा भारत में ही रुके रह जाने के आग्रह पर हेन्सांग ने भारतीय परम्पराओं के प्रति श्रद्धा दर्शाते हुए अपने देश के प्रेम पाश में बंधे होने की व्यथा बताई, हेन्सांग का राष्ट्रप्रेम किसी भी तरह से अंतरराष्ट्रीयवाद का विरोधी नहीं था | अपितु उन्ही के प्रयासों से भारत-चीन संवाद परंपरा को नए आयाम मिले |
              ख्यातनाम अर्थ शास्त्री अमर्त्य सेन ने अपनी पुस्तक ‘न्याय का सिद्धांत’ में बड़े अच्छे तरीके से बताया है की न्याय के अंतिम लक्ष्य अंतरराष्ट्रीय न्याय की प्राप्ति हेतु यदि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को आधार मानें तो यह रास्ता विभिन्न राष्ट्रों के आपसी संवाद से ही आता है | यूरोपियन यूनियन इसका बहुत अच्छा उदाहरण है चाहे सीमित अर्थों में ही सही किनती यदि सभी राष्ट्र यह स्वीकार कर लें की उनके कुछ न्यूनतम हित सभी के साथ साझा है तो राष्ट्रवाद, अंतरराष्ट्रीयवाद के आड़े कभी नहीं आएगा | UN द्वारा MDG लक्ष्य निर्धारित और उन्हें प्राप्त करने के प्रयास इसी की बानगी है |
                     जलवायु परिवर्तन के इस दौर में वैसे भी यह व्यवहारिक है की हम सब मिलकर प्रयास करें क्यूंकि राष्ट्रवाद की संकीर्ण मान्यताओं के आधार पर तो शायद एक राष्ट्र को फायदा हो सकता है किन्तु अंततः नुकसान पूरे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का और मानव जाति का ही होगा | किसी एक देश के कार्बन उत्सर्जन का असर किसी छोटे देश के अस्तित्व पर ही खतरा उत्पन्न कर सकता है | संचार क्रांति और ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में यह अपरिहार्य है की हम मिलकर प्रयास करें ताकि सभी को साझा लाभ हो | जैसा की हमारे प्रधानमंत्री जी ने कहा भी है की अब समय आ गया है की सब G-8, G-20 से आगे जाकर G-ALL पर विचार करें |
                   किन्तु इस सारी प्रक्रिया में संशय की थोड़ी सी धुंध भी घटाटोप मेघगर्जन कर सकती है | दो राष्ट्रों के बीच यदि संदेह बढ़ता जाए तो वह हथियारों की दौड़ को और बढ़ाएगा | युक्रेन विवाद ने पुनः विश्व को शीत युद्ध का सा आभास दे दिया है | भारत पाक विवाद के संदर्भ में भी यह सोचना एक बार तो बेमानी लगता है की क्या कभी ये दो देश अंतरराष्ट्रीयवाद के सांचे में फिट बैठ पायेंगे | नुक्लेअर हथियारों, हथियारों की दौड़, आतंकवाद जैसी घटनाओं ने दोनों देशों की जनता को असुरक्षा तथा भय के माहोल में पहुंचा दिया है | आवश्यकता है की संदेह के बादलों को हटाया जाए नदियों को बांटने वाली डोरी न मानकर विश्व धरोहर की हिस्सेदारी पूर्ण दाय माना जाए | ऐसे प्रयास हो की मानसून की धमक से भारत पाक एक साथ सौहार्द्र की बारिश में भीग जाए | पंचशील, गुजराल सिद्धांत के रूप में ऐसे प्रयास किये भी गए हैं, जिन्हें और आगे ले जाने की आवश्यकता है | हमारा साझा अतीत और अंतर्राष्ट्रीय अनुभव हमें इसके सकारात्मक संकेत देते हैं |
                             समग्र तौर पर देखें तो राष्ट्रवाद और अंतरराष्ट्रीयवाद विरोधाभासी नहीं है क्यूंकि अंतिम लक्ष्य तो दोनों का ही मानव मात्र का उत्थान ही है | कुछ संकीर्णताएं हैं किन्तु उन्हें मिटाने के प्रयास किये जा सकते हैं तथा समाधान के बिंदु हमें राष्ट्रवाद और अंतरराष्ट्रीयवाद में खोजने पर मिल ही जायेंगे |   

Monday, 23 February 2015

अधिकार(सत्ता) बढ़ने के साथ साथ उत्तरदायित्व भी बढ़ जाता है



          अधिकार(सत्ता) बढ़ने के साथ साथ उत्तरदायित्व भी बढ़ जाता है
मनोविज्ञान में मनुष्य के सन्दर्भ में तीन आदिम भावनाओं की बात की गयी है जो की क्रमशः 'लिबिडो', 'दूसरों पर नियंत्रण रखने की इच्छा' और 'जीवित रहने की इच्छा के रूप में जानी जाती है | ये तीनों मनुष्य की मूल इच्छाएं होती हैं जो मनुष्य के अवचेतन में रहती है और अवसर आने पर कई रूपों में प्रकट होती हैं | यदि इस सन्दर्भ में दूसरी आदिम इच्छा –दूसरों पर नियंत्रण रखने की इच्छा की बात की जाए तो उसे सत्ता (अधिकार) के लिए रूढ़ माना जा सकता है | हर मनुष्य सत्ता प्राप्त करना चाहता है और इस माध्यम से वह अधिकाधिक शक्ति प्राप्त करना चाहता है ताकि वह दूसरों के जीवन पर नियंत्रण रख सके | यहाँ सत्ता के संकीर्ण नजरिये से बचते हुए हमें इसके आयामों का ध्यान रखना चाहिए | सत्ता कई प्रतीकों के माध्यम से आती है वह राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक कई रूपों में आती है|
                     अब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं की सत्ता और शक्ति की असीमितता के क्या परिणाम होते हैं | क्या सदैव ही ये नकारात्मक होते हैं जैसा की कहा भी गया है “शक्ति मनुष्य को भ्रष्ट बनाती है और असीमित शक्ति असीमित रूप से भ्रष्ट” क्या सत्ता के साथ उत्तरदायित्व की भावना की अनिवार्यता संभव है और दोनों के परिणाम क्या होंगे |
                  पहले हम इसे समझने का प्रयास करते हैं की शक्ति की अनियिन्त्रिता के परिणाम क्या होंगे | हिंदी साहित्य के पुनर्जागरण के पुरोधा भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने प्रसिद्द नाटक ‘अंधेर नगरी-चौपट राजा’ में बहुत ही सशक्त तरीके से दिखाया है की किस प्रकार एक मूर्ख राजा अपनी शक्ति का प्रयोग करता है जिससे निर्दोष नागरिक मृत्युदंड के कगार पर पहुँच जाता हैकिन्तु अंततः मूर्ख राजा स्वयं ही उसका शिकार होता है और मारा जाता है | हमारा इतिहास ऐसे तानाशाहों से भरा पड़ा है जिन्होंने अपनी अपिरिमित शक्ति के प्रयोग से आम जनता के लिए कई परेशानियां खड़ी की है | तैमुर, नादिरशाह और हलाकू से लेकर पोलपोट, सद्दाम हुस्सेंन और गद्दाफी तक यह परंपरा अद्यतन कायम है |
अंतरराष्ट्रीय जगत के निर्विवाद नेता US द्वारा इराक पर एक तरफ़ा आक्रमण करना जबकि इसके लिए उसे UN का अनिवार्य अनुमोदन भी प्राप्त नहीं था कोण भूल सकता है | बाद में इसी आक्रमण के फलस्वरूप आई शक्ति शून्यता तथा वहाँ की संस्थागत शून्यता की स्थति ने वर्तमान ISIS संकट का उद्भव किया | पश्चिमी देशों के उपनिवेशवाद, हिटलर की अमानुषिकता US का वियतनाम युद्ध जैसे कई द्रष्टान्त इतिहास में भरे पड़े हैं |
यदि सत्ता को सामजिक सन्दर्भों में देखें तो किस प्रकार सदियों से पुरुष द्वारा महिला का दमन किया गया और महिलाओं को मूल अधिकारों से वंचित रखा गया | किस प्रकार पूँजीवाद ने श्रमिक वर्ग का शोषण किया और किस प्रकार सैकड़ों वर्षों तक ब्राह्मण वर्ग द्वारा दलित वर्ग का पद दलन किया गया इससे भला कोण परिचित नहीं होगा |
आर्थिक मोर्चों पर बड़ी कम्पनियां सदा ही छोटी कंपनियां को रोंदती आई हैं | ईस्ट इंडिया कंपनी की सर्वोच्चता ने ही उसे पूँजीवाद के विद्रूप चेहरे में बदल दिया था | आधुनिक युग में माइक्रोसॉफ्ट के खिलाफ 1998 में लाया गया एंटी ट्रस्ट मामला तत्कालीन US इतिहास का सबसे बड़ा मामला था ये सब मुद्दे इन बड़ी कंपनियों को ऐसे बड़े वट वृक्ष के रूप में निरूपित करते हैं जिनके तले छोटी कंपनियों रुपी कोंपलें पल्लवित नहीं हो सकती हैं | इसी कारन भारत में कम्पटीशन कमीशन ऑफ इंडिया (CCI) की अवधारणा आई |
            उपरोक्त उदहारण सत्ता की एक बहुत ही नकारात्मक छवि पेश करते हैं और अनायास ही सत्ता को हम उसके पाशविक रूप में देखने लगते हैं जैसा की परमाणु बम के प्रणेता ने हिरोशिमा नागासाकी के सन्दर्भ अपने नेतृत्व द्वारा इसके दुरुपयोग पर कुंठित होते गीता के ही शब्दों को प्रतिध्वनित करते हुए कहा था की “मैं ही शक्ति हूँ, मैं ही काल हूँ” तो क्या सत्ता का सिर्फ यही एक चेहरा है जो वीभत्स है या सत्ता का सदुपयोग संभव है जो की उत्तरदायित्व की बयार के साथ आये | आइये अब सत्ता के इस पक्ष पर बात करते हैं |
            सत्ता के सकारात्मक उपयोग से आशय है कुछ उत्तरदायित्व की भावना का समावेश किया जाना | यह स्वतः फूर्त भी हो सकता है और बाह्य आरोपित भी | इस सन्दर्भ में हमारे इतिहास के दो महान शासकों अशोक और अकबर का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा | अशोक ने सत्ता का निरंकुश प्रयोग करते हुए भयानक मारकाट मचाई किन्तु उसी सत्ता के दायित्व बोध ने अशोक को धर्म और शान्ति के सन्देश के प्रसार को प्रेरित किया और अशोक का स्थान राजा, शासक, महाराजा की अंतहीन श्रंखला में सबसे चमकीले नक्षत्र के रूप में प्रकाशमान है | सम्राट अकबर ने सत्ता और सहिष्णुता के मेल जोल से तथा संवाद की परंपरा कायम करके मुग़ल साम्राज्य को एक झटके से बाहरी आततायी के स्थान पर भारत की मिटटी से गहरे से जोड़ दिया |
                 इस सन्दर्भ में भारतीय संविधान निर्माताओं की सोच बड़ी दूरदर्शी थी | UK का संविधान मानव समाज की विकृतियों से शंकित हो सारी शक्ति संसद को सौंप देता है तो  US का संविधान कुछ अग्रगामी था और विधि निर्माताओं की शक्तियों से शंकित हो शक्ति स्रोत न्यायपालिका को सौंपता है किन्तु भारतीय संविधान निर्माताओं ने एक माध्यम मार्ग खोज निकाला है और शक्ति संतुलन कायम किया जो की एक मायने में उत्तरदायित्व की भावना का संतुलन था
                    सामजिक क्षेत्र में पुरुष वर्ग के पददलन से त्रस्त विश्व में केरल और मेघालय की मात्रवंशीय परम्पराएं भी द्रष्टिगत हैं | इन दोनों स्थानों पर क्रमशः नायर तथा खासी वंशों में मात्रवंशीय परम्पराएं हैं | कहना न होगा की किस प्रकार सर्वत्र नारी के शोषण ने इन स्थानों पर शक्ति के स्रोत नारी को एक उत्तरदायित्व का बोध कराया और इसी कारण यहाँ पर सत्ता का प्रयोग ज्यादा विवेकशील था | इसी कारण यहाँ के सामाजिक प्रतिमान भारत में अन्य स्थानों से अच्छे हैं |
        प. नेहरु में भी यह भावना थी तभी निर्विवाद रूप से भारत के सबसे बड़े नेता होने के बावजूद डॉ आंबेडकर और डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया जबकि वे उनके राजनीतिक विरोधी थे | यह उत्तरदायित्व की भावना उनकी पुत्री इंदिरा गांधी में उतने गहरे शायद नहीं थी तो उसका परिणाम लोकतंत्र पर एक धब्बे के रूप में इमरजेंसी के रूप में सामने आया |
शक्ति के साथ उत्तरदायित्व के सबसे सशक्त उदाहरण हमारी संवैधानिक संस्थाएं हैं | भारत का निर्वाचन आयोग चुनाव के समय शक्ति का अंतिम स्रोत हो जाता है किन्तु इन्ही चुनावों के माध्यम से भारतीय लोकतंत्र हर पांच वर्ष में सत्ता का परिवर्तन बड़े शांतिपूर्ण तरीके से करता है | CAG द्वारा की गयी निष्पक्ष लेखा परीक्षाएं सदा ही से सत्तारूढ़ शासक वर्ग के लिए चिंता का सबब रही हैं | कहना न होगा की किस प्रकार स्वायत्त RBI की नीतियों ने 1929 के बाद की सबसे बड़ी आर्थिक सुनामी से भारत को एक हद तक बचा लिया था तथा एकभी भारतीय बैंक दिवालिया नहीं हुआ था |
            इस प्रकार सत्ता और शक्ति के दो स्वरूप होते हैं और जितनी प्रबल सत्ता होती है उतनी ही प्रबल उत्तरदायित्व की भावना की दरकार होती है | एक और परमाणु बम विनाश का तांडव रचते हैं तो दूसरी और शान्तिपूर्ण प्रयोग विश्व की ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने में सक्रीय योगदान देते हैं | जिस प्रकार ज्यादा स्वतंत्रता की मांग के साथ एक बड़े उत्तरदायित्व की भावना स्वतः आती है जो की आग्रहपूर्वक यह दर्शाती है की स्वतन्त्र व स्वच्छंद रूप में जो निर्णय हमने लिए हैं उनके  परिणामों की जिम्मेदारी भी हमारी स्वयं की होती है | यह परिणाम की जिम्मेदारी स्वतः ही हमारी स्वतंत्रता को ऊश्च्रंख्ल होने से बचा लेती है | ठीक इसी प्रकार उतरदायित्व की भावना शक्ति के प्रयोग को ऊश्च्रंख्ल होने से बचाता है |