Sunday 10 May 2015

You can lead a horse to water, but you can’t make him drink



       You can lead a horse to water, but you can’t make him drink

एक ही विद्यालय में पढने वाले छात्र कालांतर में अलग अलग महाविद्यालयों में जाते हैं | सफलता असफलता प्रदर्शन सभी कुछ में भिन्नता वांछनीय होती है | एक ही समय में ऊद्भवित हुए राष्ट्र कालांतर में विकास के मानदंडों में काफ़ी भिन्नता रखते हैं | नीतियाँ सभी के लिए समान होती हैं, फिर भी कुछ लोग या संगठन ज्यादा तो कुछ कम परिणामोन्मुखी होते हैं | इन सब अंतरों के मूल में परिस्थतियों की भिन्नता होना तो अवश्यम्भावी और अपरिहार्य है किन्तु वह चीज़ जो सभी में साम्य रखती है, वह है- लोग या संगठन अपने पथ प्रदर्शक द्वारा दिखाए गए मार्ग पर किस प्रकार और किस गति से चलते हैं | इसी को अंग्रजी की एक कहावत इस रूप में निरुपित करती है – हम घोड़े को पानी के स्रोत तक ले जा सकते हैं किन्तु उसे ज़बरदस्ती पानी नहीं पिला सकते अंततः पानी तो घोड़े को ही पीना होता है
              विंस्टन चर्चिल द्वितीय विश्व युद्ध के समय अपने ऊत्र्कष्ट भाषणों के माध्यम से राष्ट्र को संबोधित कर रहे होते हैं तब भी अंततः वह उनके सैनिक ही थे उनकी पूरी रणनीति और भावाभिव्यक्ति को असल में अमल में ला रहे होते हैं | महान से महान से नेता भी राष्ट्र को अच्छी दिशा दिखा सकता है किन्तु राष्ट्र को महान उसके नागरिक ही बनाते हैं – महानता से सीधा सा आशय है राष्ट्र के नागरिकों के कृत्य | जर्मनी, जापान जैसे कई देश जो द्वितीय विश्व युद्ध के समय अपना सब कुछ खो चुके थे, यदि वर्तमान में उनके विकास का चित्र मस्तिष्क में उभरता है तो अनायास ही मन उन राष्ट्रों के नागरीकों के प्रति श्रद्धावनत हो जाता है | कोई भी सरकार सिर्फ आधारभूत सरंचना दे सकती है प्रबंधन कर सकती है किन्तु उत्कृष्ट परिणाम तो वहाँ के नागरिक ही देते हैं
       आर्थिक मोर्चों पर इतनी नीतियां बनाई जाती है | 80 के दशक से ही स्व सहायता समूह (SHG) कई नीतियों के केंद्र में रहा है किन्तु धीरे धीरे इनकी कमियाँ द्रष्टिगत हो रही है कई SHG सुलभ ऋण को अच्छे से प्रयोग में नहीं ला पा रहे हैं | धारनीयता (sustainability) के सन्दर्भ में देखें तो वे प्राप्त ऋण से उत्पादक उद्योग नहीं लगा पा रहे हैं | इसी प्रकार RBI मौद्रिक नीति में बदलाव करता है किन्तु अंततः यह बैंकों के विवेक पर ही निर्भर करता है की वे कितना , किस प्रकार और कब उस नीति को जनता के लाभ की दिशा में मोड़ते हैं | हमारे पंचायती राज संस्थाओं को संविधान प्रदत शक्तियों की उपादेयता इसी में अन्तर्निहित है की वे वे उनका उपयोग करते हैं तो किस प्रकार करते हैं |
              अंतर्राष्ट्रीय मोर्चों पर UN जैसी संस्थाएं MDG जैसे कई लक्ष्य निर्धारित करती है किन्तु उनका क्रियान्वयन को राष्ट्र की सरकारों को ही करना होता है | देश जनसँख्या नीति बना सकते हैं, जागरूकता फैला सकते हैं किन्तु अनुपालना तो जनता को ही करनी होती है और अंततः परिणाम भी उसी पर निर्भर करते हैं | जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित सारे वैज्ञानिक प्रेक्षण, IPCC की सारी रिपोर्टें और सारे जलवायु सम्मेलनों का सार यही है की | प्रथ्वी को इस अंधाधुंध दोहन से हम किस प्रकार और कब तक बचायेंगे तो इसके उत्तर के मूल में यही की हम क्या प्रयास करते हैं. यदि प्रयास करते हैं तो कितना प्रभावशाली तरीके से करते हैं |
              सारे धर्म हमें नैतिकता का ही पाठ पढ़ाते हैं किन्तु यह व्यक्ति पर निर्भर करता है की वह उनकी व्याख्या किस प्रकार करता है, उन सिद्धांतों को अमल में लाता भी है क्या | बुद्ध के सिद्धांतों से ऊंगलिमार डाकू भी सन्यासी बन जाता है वही कुछ धर्मांध लोगों पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ता | धर्म हमें नैतिकता का पथ दिखा सकते हैं मानवीय जीवन की उपादेयता के सिद्धांत बता सकते है किन्तु यह अंततः हमारे अन्तःकरण पर निर्भर करता है की हम वास्तव में क्या करना चाहते हैं | अन्यमनस्कता से किया गया कोई भी कार्य यथोचित फल नहीं देता है जैसा की छान्दोक्य उपनिषद में लिखा भी है
“वह जो हमारी गहरी अंतःकरण की संवेदना है, वही हमारी इच्छा है, जो हमारी इच्छा है वही हमारा कर्म है और जो हमारा कर्म है वही हमारा भाग्य है”
       वर्तमान दौर में इसकी प्रासंगिकता और बढ़ जाती है | जब हमारे पास सूचनाओं का भण्डार है \ नीतियों का बाहुल्य है | मार्गदर्शकों की कोई कमी नहीं है | प्रश्न वही है क्या हम वास्तव में वह करना चाहते हैं | यदि हमारे अंतःकरण में वह करने की इच्छाशक्ति है तो हम दिखाए गए पथ पर अग्रसित होकर नीतियों को अमली जामा पहना सकेंगे, क्यूंकि वर्तमान में क़ानून का न होना या नीतियों का न होना कोई समस्या नहीं है असल समस्या है उनके क्रियान्वयन में प्रबल इच्छाशक्ति का अभाव | जिस प्रकार नैतिकता के ऊपर कोई क़ानून नहीं बनाया जा सकता उसी प्रकार से सिर्फ नीतिगत बाध्यता से किसी नीति के सही परिणाम दे देने में संशय की पूरी गुंजाइश रहती है |
              इस प्रकार किसी भी नीति या क़ानून या नीति के सन्दर्भ में हमें अपने अन्तः कारन में झांकना होगा | क्या हम सिर्फ भ्रस्ताचार क़ानून चाहते हैं या वास्तव में भ्रस्ताचार मुक्त समाज भी चाहते हैं | ऐसा समाज जिसका हम स्वयं भी अंग होगा जिसमे हम स्वयं भी क़ानून की कमजोरियों को कभी ढाल बनाकर स्वयं के बचाव का प्रयास नहीं करेंगे | क्या गाँव के सरपंच होने के नाते हम वास्तव में चांगे की नरेगा जैसे अगणित सरकारी कार्यक्रम अपने मूल उदेश्य लोक कल्याण को फलीभूत करें | क्या हम वास्तव में महिलाओं को बराबरी का दर्जा देना चाहते हैं | क्या हम वास्तव में लिंग आधारित भेदभाव नहीं करते | इस प्रकार के असंख्य प्रश्नों के उत्तर हमें स्वयं में खोजने होंगे तभी हम अंततः उन सारी नीतियों की सार्थकता सिद्ध कर पायेंगे अन्यथा वे सिर्फ नेमी योजनायें बनकर रह जायेंगी और हम सिर्फ उनकी रस्म अदायगी के निमित्त मात्र

No comments:

Post a Comment